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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 32/ मन्त्र 25
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    परा॑ णुदस्व मघवन्न॒मित्रा॑न्त्सु॒वेदा॑ नो॒ वसू॑ कृधि। अ॒स्माकं॑ बोध्यवि॒ता म॑हाध॒ने भवा॑ वृ॒धः सखी॑नाम् ॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । नु॒द॒स्व॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒मित्रा॑न् । सु॒ऽवेदा॑ । नः॒ । वसु॑ । कृ॒धि॒ । अ॒स्माक॑म् । बो॒धि॒ । अ॒वि॒ता । म॒हा॒ऽध॒ने । भव॑ । वृ॒धः । सखी॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परा णुदस्व मघवन्नमित्रान्त्सुवेदा नो वसू कृधि। अस्माकं बोध्यविता महाधने भवा वृधः सखीनाम् ॥२५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा। नुदस्व। मघऽवन्। अमित्रान्। सुऽवेदा। नः। वसु। कृधि। अस्माकम्। बोधि। अविता। महाऽधने। भव। वृधः। सखीनाम् ॥२५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 32; मन्त्र » 25
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मघवन् राजन् सुवेदास्त्वं नोऽस्माकममित्रान् परा णुदस्व नो वसु कृधि महाधनेऽस्माकं सखीनामविता बोधि वृधो भव ॥२५॥

    पदार्थः

    (परा) (णुदस्व) प्रेरय (मघवन्) बहुधनयुक्त राजन् (अमित्रान्) शत्रून् (सुवेदाः) धर्मोपार्जितैश्वर्यः (नः) अस्माकमस्मभ्यं वा (वसु) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (कृधि) कुरु (अस्माकम्) (बोधि) बुध्यस्व (अविता) रक्षकः (महाधने) महान्ति धनानि प्राप्नुवन्ति यस्मिँस्तस्मिन् सङ्ग्रामे (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वृधः) वर्धकः (सखीनाम्) सर्वसुहृदाम् ॥२५॥

    भावार्थः

    हे राजंस्त्वं धार्मिकाञ्छूरान्सत्कृत्य शिक्षयित्वा युद्धविद्यायां कुशलान्कृत्वा दस्य्वादीन्दुष्टान्निवार्य्य सर्वोपकारकाणां मनुष्याणां रक्षको भव ॥२५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मघवन्) बहुधनयुक्त राजा (सुवेदाः) धर्म से उत्पन्न किये हुए ऐश्वर्ययुक्त ! आप (नः) हमारे (अमित्रान्) शत्रुओं को (परा, णुदस्व) प्रेरो हमारे लिये (वसु) धन को (कृधि) सिद्ध करो (महाधने) बड़े वा बहुत धन जिसमें प्राप्त होते हैं उस संग्राम में (अस्माकम्) हमारे (सखीनाम्) सर्व मित्रों के (अविता) रक्षा करनेवाले (बोधि) जानिये और (वृधः) बढ़नेवाले (भव) हूजिये ॥२५॥

    भावार्थ

    हे राजा ! आप धार्मिक, शूरजनों का सत्कार कर उनको शिक्षा देकर युद्धविद्या में कुशल कर डाकू आदि दुष्टों को निवृत्त कर सर्वोपकारी मनुष्यों के रक्षा करनेवाले हूजिये ॥२५॥

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे (मघवन्) परमैश्वर्यवन् ! इन्द्र ! परमात्मन्! (अमित्रान्) हमारे सब शत्रुओं को (पराणुदस्व) परास्त कर दो। हे (दात:) ! (सुवेदा, नो, वसू, कृधि) हमारे लिए सब पृथिवी के धन सुलभ [सुख से प्राप्त] कर । (महाधने) युद्ध में (अस्माकम्) हमारे और (सखीनाम्) हमारे मित्र तथा सेनादि के (अविता) रक्षक(वृधः) वर्धक (भव) आप ही हो तथा (बोधि) हमको अपना ही मित्र जानो । हे भगवन् ! जब आप ही हमारे योद्धारक्षक होंगे तभी हमारा सर्वत्र विजय होगा, इसमें सन्देह नहीं ॥ २४ ॥

    टिपण्णी

    १. योद्धाओं के रक्षक। - सं०

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    विषय

    शत्रुओं को दूर करने की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( मघवन् ) परम पूजित धन के स्वामिन् ! तू ( नः अमित्रान्) हमारे शत्रुओं को ( परा नुदस्व ) दूर कर और ( नः ) हमें ( वसू ) नाना ऐश्वर्य ( सुवेदा कृधि ) सुख से प्राप्त करने योग्य कर । अथवा हे ( सु-वेदाः ) उत्तम धनाध्यक्ष ! तू ( नः वसू कृधि ) हमें उत्तम धन प्रदान कर । ( महा-धने ) संग्राम के अवसर पर वा भारी ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये, तू ( अस्माकं ) हमारा ( अविता ) रक्षक हो (बोधि) हमें चेताता रह । और ( अस्माकं सखीनाम् ) हम मित्रों और हमारे मित्रों का ( वृधः भव ) बढ़ाने हारा हो ।

    टिप्पणी

    'सुवेदाः' 'सुवेदा' उभावपि पदपाठौ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठः । २६ वसिष्ठः शक्तिर्वा ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, ४, २४ विराड् बृहती । ६, ८,१२,१६,१८,२६ निचृद् बृहती । ११, २७ बृहती । १७, २५ भुरिग्बृहती २१ स्वराड् बृहती । २, ६ पंक्तिः । ५, १३,१५,१६,२३ निचृत्पांक्ति: । ३ साम्नी पंक्तिः । ७ विराट् पंक्तिः । १०, १४ भुरिगनुष्टुप् । २०, २२ स्वराडनुष्टुप्॥ सप्तविंशत्यूचं सूक्तम्॥

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    विषय

    शत्रु का पराभव

    पदार्थ

    पदार्थ- हे (मघवन्) = धन के स्वामिन् ! तू (नः अमित्रान्) = हमारे शत्रुओं को (परा नुदस्व) = दूर कर और (नः) = हमें (वसू) = नाना ऐश्वर्य (सुवेदा कृधि) = सुख से प्राप्त करने योग्य कर । (महाधने) = संग्राम के समय वा भारी ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये, तू (अस्माकं) = हमारा (अविता) = रक्षक हो (बोधि) = हमें चेताता रह और (अस्माकं सखीनाम्) = हमारे मित्रों का (वृधः भव) = बढ़ाने हारा हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - परमात्मा से प्रार्थना करें कि जीवन संग्राम में काम, क्रोधादि आन्तरिक शत्रुओं का पराभव करने हेतु हे प्रभो ! सामर्थ्य दे तथा सांसारिक शत्रु देश-द्रोही व विदेशी शासक, व सैनिक आदि को विजय करने हेतु आत्मिक बल एवं प्रेरणा प्रदान करे।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे राजा, तू धार्मिक, शूर लोकांचा सत्कार कर. त्यांना शिक्षण देऊन युद्धविद्येत कुशल करून दुष्टांना निवृत्त कर. सर्वांवर उपकार करणाऱ्या माणसांचे रक्षण करणारा हो. ॥ २५ ॥

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    हे (मघवन्) परम ऐश्वर्यवान इंद्र परमेश्वरा ! (अमित्रान्) आमच्या सर्व शत्रूना (पराणुदस्व) पराजित कर. हे दात्या ! (सुवेदा नो वसु कृधि) (अकस्माकं बोध्यविता) पृथ्वीवरील सर्व धन आम्हाला सुलभतेने प्राप्त होऊ दे. (महाधने) युद्धात आमचा आमच्या मित्रांचा व सेनेचा (अविता) रक्षक (वृधः) वर्धक (भव) तूच आहेस. (बोधि) आम्हाला आपलेच समज. हे भगवान! जेव्हा तू आमचा रक्षक, योद्धा असशील तेव्हा आमचा सर्वत्र विजय होईल यात संशय नाहीं ॥२४॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Lord of wealth, honour, power and excellence, treasure home of glory and grandeur, throw off the enemies far away. Give us the wealth of life. Give us the knowledge and awakenment for good living. Be our saviour and protector in the strife of existence which is otherwise too great for us. Be the promoter of all friendly forces.

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    Purport

    O the Bounteous Lord ! O Supreme Power ! Kindly do defeat all our enemies. O Donor Divine ! Make the 25. make wealth of the w world easily available to us. In the battlefield you I you are our protector and also o the friends and armies. Kindly treat us your friend. O God! When you will be our saviour in war, undoubtedly, we will then come out victorious everywhere.

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे मधवन् = परमैश्वर्यवन् । इन्द्र परमात्मन् ! ! ! अमित्रान् = हाम्रा सबै शत्रु हरु लाई पराणुदस्व = परास्त गरिदिनुहोस् । हेदातः ! सुवेदा, नो, वसु कृधि = हाम्रा लागी समस्त पृथिवी को धन सुलभ गरिदिनु होस् । महाधने = युद्ध मा अस्माकम् = हाम्रो र -सखी नाम्= हाम्रा मित्र तथा सेना आदि का अविता रक्षक एवं वृध वर्धक भव= तपाईं नै हुन हुन्छ तथा बोधि = हामीलाई आफ्नै मित्र ठान्नुहोस् । हे भगवन् ! जब हजुर नै हाम्रा योद्धा हरु को रक्षक हुनु हुनेछ तब मात्र हाम्रो सर्वत्र विजय हुनेछ । एसमा सन्देह छैन ॥२४॥

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