ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 18/ मन्त्र 17
ते नो॑ भ॒द्रेण॒ शर्म॑णा यु॒ष्माकं॑ ना॒वा व॑सवः । अति॒ विश्वा॑नि दुरि॒ता पि॑पर्तन ॥
स्वर सहित पद पाठते । नः॒ । भ॒द्रेण । शर्म॑णा । यु॒ष्माक॑म् । ना॒वा । व॒स॒वः॒ । अति॑ । विश्वा॑नि । दुः॒ऽइ॒ता । पि॒प॒र्त॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते नो भद्रेण शर्मणा युष्माकं नावा वसवः । अति विश्वानि दुरिता पिपर्तन ॥
स्वर रहित पद पाठते । नः । भद्रेण । शर्मणा । युष्माकम् । नावा । वसवः । अति । विश्वानि । दुःऽइता । पिपर्तन ॥ ८.१८.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 18; मन्त्र » 17
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(ते, वसवः) ते पूर्वोक्तविद्वांसः (युष्माकम्, नावा) स्वनावा ज्ञानरूपया (नः) अस्मान् (भद्रेण, शर्मणा) शोभनेन सुखेन (विश्वानि) सर्वाणि (दुरिता) दुरितानि (अतिपिपर्तन) अतिपारयत ॥१७॥
विषयः
पुनस्तदेवानुवर्त्तते ।
पदार्थः
हे वसवः=वसुभूता धनस्वरूपाः । यद्वा । वासयितारो विद्वांसः । ते=यूयं सुप्रसिद्धा आचार्य्याः । भद्रेण=कल्याणेन । शर्मणा=सुखेन च सार्धम् । नोऽस्मान् । विश्वानि=सर्वाणि । दुरिता=दुरितानि=अनिष्टानि पापानि । युष्माकं नावा=नौसाधनेन । अति+पिपर्तन=पिपृत=अतिपारयत ॥१७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
हे विद्वानो ! (ते, वसवः) वे पूर्वोक्त आप (युष्माकम्, नावा) अपनी ज्ञानरूप नौका द्वारा (नः) हमको (भद्रेण, शर्मणा) सुन्दर सुख से (विश्वानि, दुरिता) सकल दुःखसाध्य कर्मों से (अतिपिपर्तन) पार करें ॥१७॥
भावार्थ
हे वेदविद्या में पारग विद्वान् पुरुषो ! आप हमको अपनी ज्ञानरूप नौका द्वारा इस संसाररूप भवसागर से पार करें अर्थात् हमको सम्पूर्ण दुःखसाध्य कर्मों से पृथक् करके सुखसाध्य कर्मों में परिणत करें, जो विद्वानों का कर्तव्य है ॥१७॥
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(वसवः) हे धनस्वरूप ! यद्वा हे वासयिता विद्वानों ! (ते) वे सुप्रसिद्ध आप (भद्रेण) कल्याण और (शर्मणा) सुख के साथ (नः) हमको (विश्वानि) सम्पूर्ण (दुरिता) पापों से (युष्माकम्) अपनी (नावा) नौका के द्वारा (अति+पिपर्तन) दूर पार उतार देवें ॥१७ ॥
भावार्थ
विद्वानों के सङ्ग से कुकर्म में प्रवृत्ति नहीं होती है । अतः वे आदर से सेवनीय हैं ॥१७ ॥
विषय
विद्वानों से अज्ञान और पापनाश की प्रार्थना।
भावार्थ
हे ( वसवः ) राष्ट्र में या आश्रमों में बसे माता पितादि जनों ( ते ) वे आप लोग ( युष्माकं ) अपने ( शर्मणा ) दुष्टों के नाशक, शान्तिदायक कर्म से ( विश्वानि दुरिता ) सब दुष्टाचरणों से ( नावा ) नौका से जलों के समान ( अति पिपर्त्तन ) पार करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
इरिम्बिठिः काण्व ऋषिः॥ देवताः—१—७, १०—२२ आदित्यः। ८ अश्विनौ। ९ आग्निसूर्यांनिलाः॥ छन्दः—१, १३, १५, १६ पादनिचृदुष्णिक्॥ २ आर्ची स्वराडुष्णिक् । ३, ८, १०, ११, १७, १८, २२ उष्णिक्। ४, ९, २१ विराडुष्णिक्। ५-७, १२, १४, १९, २० निचृदुष्णिक्॥ द्वात्रिंशत्यूचं सूक्तम्॥
विषय
वसुओं का भद्र शर्म
पदार्थ
[१] हे (वसवः) = जीवन में निवास को उत्तम बनानेवाले वसुओ ! (ते) = वे आप (नः) = हमें (युष्माकम्) = आपके (भद्रेण शर्मणा) = कल्याणकर रक्षण से (विश्वानि दुरिता) = सब दुरितों के (अति पिपर्तन) = पार ले जावो, (नावा) = जैसे नाव से नदी के पार ले जाते हैं। [२] वसुओं का 'भद्र शर्म' कल्याणकर रक्षण हमारे लिये इस भव जलधि को तैरने के लिये नौका के समान हो जाये।
भावार्थ
भावार्थ- हम जीवन को उत्तम बनानेवाले वसुओं के भद्रशर्म से इस भवजलधि को ऐसे तैर जायें, जैसे कि नाव से नदी को तैर जाते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Vasus, providers of settlement, peace and joy, Adityas, holy powers of light and life in nature and humanity, we pray, be our guides and pilots and, by your saving ark of life and destiny, lead us over the sins and sufferings of the world with the peace and felicity of the life divine.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांबरोबर राहिल्याने कुकर्मात प्रवृत्ती होत नाही, त्यासाठी ते आदराने सेवन करण्यायोग्य असतात. ॥१७॥
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