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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - आर्चीस्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उदु॒ ष्य व॑: सवि॒ता सु॑प्रणीत॒योऽस्था॑दू॒र्ध्वो वरे॑ण्यः । नि द्वि॒पाद॒श्चतु॑ष्पादो अ॒र्थिनोऽवि॑श्रन्पतयि॒ष्णव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ऊँ॒ इति॑ । स्यः । वः॒ । स॒वि॒ता । सु॒ऽप्र॒नी॒त॒यः । अस्था॑त् । ऊ॒र्ध्वः । वरे॑ण्यः । नि । द्वि॒ऽपादः॑ । चतुः॑ऽपादः । अ॒र्थिनः । अवि॑श्रन् । प॒त॒यि॒ष्णवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदु ष्य व: सविता सुप्रणीतयोऽस्थादूर्ध्वो वरेण्यः । नि द्विपादश्चतुष्पादो अर्थिनोऽविश्रन्पतयिष्णव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ऊँ इति । स्यः । वः । सविता । सुऽप्रनीतयः । अस्थात् । ऊर्ध्वः । वरेण्यः । नि । द्विऽपादः । चतुःऽपादः । अर्थिनः । अविश्रन् । पतयिष्णवः ॥ ८.२७.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O noble divinities of holy thought, intention and policy, when the lord of light and life, the sun, which is the love and choice of all, rises high up in heaven, then the humans, animals and birds all go about in pursuit of their daily business.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक प्रणीति = प्रणयन रचनेत निपुण आहेत तेही सुप्रणीति म्हणविले जातात किंवा स्तुतिवचन ज्यांच्यासाठी चांगले असतात तो सुप्रणीति विद्वद्वर्ग होय. बहुतेक विद्वान लोक आळशी असतात. त्यांनी आळस सोडावा यासाठी ही शिकवण दिलेली आहे. ॥१२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    सूर्य्य इवानलसो भवेत्यनया शिक्षते ।

    पदार्थः

    हे सुप्रणीतयः=हे शोभननीतिविशारदा विद्वांसः ! वः=युष्माकम् । हिताय । उ=निश्चयेन । वरेण्यः=वरणीयः= श्रेष्ठः । ऊर्ध्वः=उपरि विराजमानः । स्य=सः । सविता=सूर्य्यः । उदस्थाद्=उदेति । तदा द्विपादः । चतुष्पादः । पतयिष्णवः= पतनशीला विहगादयश्च । अर्थिनः=स्वस्वप्रयोजनायाभिलाषिणो भूत्वा । न्यविश्रन्=स्वस्वकार्य्येषु निविशन्ते । तथा यूयमपि स्वस्वकार्य्याय सन्नद्धा भवतेत्यर्थः ॥१२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    सूर्य्य के समान अनलस हो, यह इससे शिक्षा देते हैं ।

    पदार्थ

    (सुप्रणीतयः) हे शोभननीतिविशारद विद्वानो ! (वः) आप लोगों के हित के लिये (उ) निश्चय (वरेण्यः) सर्वश्रेष्ठ (ऊर्ध्वः) और सर्वोपरि विराजमान (स्यः+सविता) वह सूर्य्य (उद्+अस्थात्) उदित होता है, तब (द्विपादः) द्विचरण मनुष्य (चतुष्पादः) चतुश्चरण गो महिषादि पशु और (पतयिष्णवः) उड्डयनशील पक्षी प्रभृति एवं अन्यान्य सब ही जीव (अर्थिनः) निज-२ प्रयोजन के अभिलाषी होकर (नि+अविश्रन्) अपने-२ कार्य्य में लग पड़ते हैं । इसी प्रकार आप भी अपने कार्य्य के लिये सन्नद्ध हो जावें ॥१२ ॥

    भावार्थ

    जो जन प्रणीति=प्रणयन रचना में निपुण हैं, वे भी सुप्रणीति कहाते हैं या जिनके लिये स्तुतिवचन अच्छे हैं, वे सुप्रणीति विद्वद्वर्ग । प्रायः विद्वज्जन आलसी होते हैं, अतः उनको आलस्यत्याग के लिये यह शिक्षा दी गई है ॥१२ ॥

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    विषय

    विद्वानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (सु-प्र-णीतयः ) पूज्य, उत्तम नीति और व्यवहार वाले पुरुषो ! (स्यः सविता) वह सबका उत्पादक परमेश्वर ( वरेण्यः ) सबसे वरण करने योग्य, सबको श्रेष्ठ मार्ग में ले चलने हारा, ( ऊर्ध्व: ) ऊपर ( वः उत् अस्थात् ) आप सबके ऊपर अधिष्ठाता रूप में विराजमान है। और ( पतयिष्णवः ) वेग से जाने और ऐश्वर्यों के स्वामी बनना चाहने वाले ( द्विपादः चतुष्पादः ) दो पाये और चौपाये भी ( अर्थिनः ) याचकवत् ( नि अविश्रन्) उसके अधीन विराजते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सूर्य के द्वारा 'सरण' की प्रेरणा

    पदार्थ

    [१] हे (सुप्रणीतयः) = उत्तम मार्ग से जीवन का प्रणयन करनेवाले, शुभ मार्ग से चलनेवाले मनुष्यो ! (स्यः) = वह (वः सविता) = तुम्हें कर्मों में प्रेरणा देनेवाला सूर्य (उ) = निश्चय से (उद् अस्थात्) = उदय हुआ है। (ऊर्ध्व:) = यह ऊपर गतिवाला सूर्य (वरेण्यः) = वरणीय है, सम्भजनीय है। इसका सम्भजन यही है कि हम भी ऊर्ध्वगतिवाले हों। [२] इस सूर्य के उदय होते ही (द्विपादः) = दो पाँवोंवाले मनुष्य, (चतुष्पादः) = चार पाँवोंवाले पशु, (आर्थिनः) = भिन्न-भिन्न प्रयोजनोंवाले अथवा धन को चाहनेवाले लोग तथा (पतयिष्णवः) = आकाश में उत्पतनवाले ये पक्षी (नि आविश्रत्) = [स्व स्व कर्मणि निविशन्ते] अपने-अपने कार्य में निविष्ट हो जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्योदय होता है। सभी मनुष्य व पशु-पक्षी अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं। सूर्य के सरण से हमें भी गतिशीलता की प्रेरणा लेनी है।

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