ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 27/ मन्त्र 7
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
व॒यं वो॑ वृ॒क्तब॑र्हिषो हि॒तप्र॑यस आनु॒षक् । सु॒तसो॑मासो वरुण हवामहे मनु॒ष्वदि॒द्धाग्न॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठव॒यम् । वः॒ । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः । हि॒तऽप्र॑यसः । आ॒नु॒षक् । सु॒तऽसो॑मासः । व॒रु॒ण॒ । ह॒वा॒म॒हे॒ । म॒नु॒ष्वत् । इ॒द्धऽअ॑ग्नयः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वयं वो वृक्तबर्हिषो हितप्रयस आनुषक् । सुतसोमासो वरुण हवामहे मनुष्वदिद्धाग्नयः ॥
स्वर रहित पद पाठवयम् । वः । वृक्तऽबर्हिषः । हितऽप्रयसः । आनुषक् । सुतऽसोमासः । वरुण । हवामहे । मनुष्वत् । इद्धऽअग्नयः ॥ ८.२७.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 27; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O Varuna, lord of light and justice, day and night, and other divine powers of nature and humanity, like men of love and faith we invoke and adore you now as ever. The grass carpets are spread and occupied, the sacred fires are lit, the fragrant havis is ready for offering, and the soma is pressed and distilled for the oblation.
मराठी (1)
भावार्थ
आपल्याजवळ जी वस्तू असेल त्याच्याकडून आपले व इतरांचे हित सिद्ध करावे. वेळोवेळी चांगल्या पुरुषांना आपल्या घरी आमंत्रित करून त्यांचा सत्कार करावा. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदनुवर्तते ।
पदार्थः
वरुण=हे राजप्रतिनिधे ! वयम् । मनुष्वद्=विज्ञानिवत् । वः=युष्मान् । आनुषक्=क्रमशः सर्वदा वा । हवामहे । कीदृशा वयम् । वृक्तबर्हिषः=बर्हिरादिसाधनसम्पन्नाः । हितप्रयसः= हितधनाः । सुतसोमासः=सोमादियज्ञकारिणः । पुनः । इद्धाग्नयः । समिद्धाग्नयः ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(वरुण) हे राजप्रतिनिधे ! (वः) आप लोगों को (वयम्) हम सब (आनुषक्) सर्वदा और क्रम से (हवामहे) न्यायार्थ बुलाते हैं । जो हम (वृक्तबर्हिषः) आसनादि सामग्रीसम्पन्न हैं, (हितप्रयसः) जिनके अन्न हितकार्य्य में लगे रहते हैं (सुतसोमासः) सोमादि यज्ञ करनेवाले (मनुष्वत्) विज्ञानी पुरुष के समान (इद्धाग्नयः) और जो सदा अग्निहोत्रादि कर्म में लगे रहते हैं ॥७ ॥
भावार्थ
अपने निकट जो वस्तु हों, उनसे अपना और पर का हित सिद्ध करे और समय-२ पर अच्छे पुरुषों को बुलाकर अपने गृह पर सत्कार करे ॥७ ॥
विषय
विद्वान् से ज्ञान की याचना।
भावार्थ
हे ( वरुण ) श्रेष्ठ पुरुषो ! ( वयम् ) हम लोग ( वृक्त बर्हिषः ) दर्भ प्राप्त करके, ( हित-प्रयसः ) अन्न धारण करके ( सुत-सोमासः ) सोम का सवन करके ( इद्धाग्नयः ) अग्नियें प्रज्वलित करके ( वः ) आप श्रेष्ठ जनों को ( मनुष्वत् ) उत्तम ननुष्यों से युक्त यज्ञ में ( हवामहे ) में आदरपूर्वक बुलावें। वा हे ( वरुण ) सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर तेरी उपासना, प्रार्थना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनुर्वैवस्वत ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:—१, ७,९ निचृद् बृहती। ३ शकुमती बृहती। ५, ११, १३ विराड् बृहती। १५ आर्ची बृहती॥ १८, १९, २१ बृहती। २, ८, १४, २० पंक्ति:। ४, ६, १६, २२ निचृत् पंक्तिः। १० पादनिचृत् पंक्तिः। १२ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। १७ विराट् पंक्तिः॥ द्वाविंशत्यृचं सूक्तम्॥
विषय
वृक्तबर्हिषः
पदार्थ
[१] हे (वरुण) = सब पापों का निवारण करनेवाले प्रभो ! (वयम्) = हम (वः) = आपको (आनुषक्) = निरन्तर हवामहे पुकारते हैं। वे हम आपको पुकारते हैं, जो (वृक्तबर्हिषः) = पापशून्य किया है। हृदयान्तरिक्ष को जिन्होंने' ऐसे हैं। (हितप्रयसः) = ' धारण किया है सात्त्विक अन्नों को जिन्होंने ' ऐसे हैं। और इस प्रकार (सुतसोमासः) = ' उत्पन्न किया है सोम जिन्होंने ' ऐसे हैं। हृदय को पापशून्य करके सात्त्विक अन्नों का सेवन करनेवाले ही सोम का रक्षण कर पाते हैं। [२] सोमरक्षण के द्वारा ये (इवाग्नयः) = समिद्ध ज्ञानग्नि की दीप्तिवाले हैं। ये ज्ञानाग्नि को समिद्ध करके (मनुः वत्) = विचारशील पुरुष बने हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के उपासक [क] हृदय से पापों को दूर करते हैं, [ख] सात्त्विक अन्न का सेवन करते हैं, [ग] सोम का रक्षण करते हैं, [घ] ज्ञानाग्नि को दीप्त करते हैं, [ङ] विचारशील बनते हैं।
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