ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 10
उद॑ग्ने॒ तव॒ तद्घृ॒ताद॒र्ची रो॑चत॒ आहु॑तम् । निंसा॑नं जु॒ह्वो॒३॒॑ मुखे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । अ॒ग्ने॒ । तव॑ । तत् । घृ॒तात् । अ॒र्चिः । रो॒च॒ते॒ । आऽहु॑तम् । निंसा॑नम् । जु॒ह्वः॑ । मुखे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदग्ने तव तद्घृतादर्ची रोचत आहुतम् । निंसानं जुह्वो३ मुखे ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । अग्ने । तव । तत् । घृतात् । अर्चिः । रोचते । आऽहुतम् । निंसानम् । जुह्वः । मुखे ॥ ८.४३.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, that flame of yours fed and served with ghrta rises and shines, having received its beauteous energy from the ladle in yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
वेद ही शिकवण देतो की, अग्नीत प्रत्येक दिवशी विविध सामग्रीने होम करा. होमासाठी जुहू, उपभृत, स्रुक् इत्यादी विविध साधने तयार करून लक्षात ठेवा की, धूर होता कामा नये. परंतु निरंतर ज्वालाच उठावी. या प्रकारे हवनाने अनेक प्रकारे कल्याण होईल. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
बाह्यजगति अग्निक्रियां दर्शयित्वा होमीयाग्निक्रियामाह ।
पदार्थः
हे अग्ने ! आहुतम्=नानाद्रव्यैः सहुतम् । तव । तदर्चिः=सा ज्वाला । घृतात् । उद्रोचते । ऊर्ध्वं गत्वा प्रकाशते । पुनः । जुह्वः=जुहू=स्त्रुक् । तस्या मुखे । निंसानं=लिहानं तदर्चिः प्रकाशत इत्यर्थः ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
बाह्यजगत् में अग्निक्रिया दिखला कर होमीय अग्निक्रिया कहते हैं ।
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्ने ! (आहुतम्) नाना द्रव्यों से आहुत (तव+तद्+अर्चिः) तेरी वह ज्वाला (घृतात्) घृत की सहायता से (उद्+रोचते) ऊपर जाकर प्रकाशित होती है । पुनः (जुह्वः) जुहू नाम की स्रुवा के (मुखे+निंसानम्) मुख में चाटती हुई वह ज्वाला शोभित होती है ॥१० ॥
भावार्थ
इससे वेद भगवान् यह शिक्षा देते हैं कि अग्नि में प्रतिदिन विविध सामग्रियों से होम किया करो, होम के लिये जुहू, उपभृत्, स्रुक् आदि नाना साधन तैयार करले और यह ध्यान रक्खे कि धूम न होने पावे किन्तु निरन्तर ज्वाला ही उठती रहे । इस प्रकार हवन से अनेक कल्याण होंगे ॥१० ॥
विषय
अग्नि-ज्वाला के तुल्य गर्भ में स्थिर जीव की वृद्धि।
भावार्थ
जिस प्रकार अग्नि की ( अर्चि: ) ज्वाला या दीप्ति ( जुह्वः मुखे) जुहू नाम चमस के मुखपर ( निंसानं ) चुम्बन करती हुई (आहुतम्) आहुति प्राप्त कर (घृतात् उत् रोचते ) घृत के कारण ऊपर को उठकर चमकती है उसी प्रकार हे (अग्ने ) स्वप्रकाश जीवात्मा ( तव तद् अर्चिः ) तेरा वह प्रकाशमय बीज ( जुह्वः मुखे ) आदान या शुक्र ग्रहण करने वाले मातृगर्भस्थ शुक्रधारक नाड़ी के मुख पर ( निंसानं ) चुम्बन या स्पर्श करता हुआ ( आहुतं सत् ) पुरुष द्वारा प्रदत्त होता है और उसी ( घृतात् ) क्षरित, तेजोमय शुक्र से ( तद्वत् ) तेरा वह रूप ( उत् रोचते ) उत्तम रीति से प्रकट होता है। इति त्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अग्निहोत्र
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = यज्ञाग्ने ! (तव तद् अर्चिः) = तेरी वह ज्वाला (घृतात्) = घृत के द्वारा (आहुतम्) = समन्तात् आहुत हुई हुई (उद्रोचते) = ऊपर उठती हुई चमकती है। [२] यह ज्वाला (जुह्वा) = घृत के चम्मच के (मुखे) = अग्रभाग में (निंसानम्) = चुम्बन करती प्रतीत होती है। यज्ञाग्नि की ज्वाला इतनी ऊपर उठती है कि आहुति साधनभूत चम्मच को छूती प्रतीत होती है।
भावार्थ
भावार्थ:-जिन घरों में अग्निहोत्र में अग्नि की ज्वालाएँ सब ऊपर उठती हैं, वहाँ इस अग्निहोत्र के द्वारा 'सौमनस्य' प्राप्त होकर शान्ति का निवास होता है।
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