ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 25
अ॒ग्निं वि॒श्वायु॑वेपसं॒ मर्यं॒ न वा॒जिनं॑ हि॒तम् । सप्तिं॒ न वा॑जयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । वि॒श्वायु॑ऽवेपसम् । मर्य॑म् । न । वा॒जिन॑म् । हि॒तम् । सप्ति॑म् । न । वा॒ज॒या॒म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं विश्वायुवेपसं मर्यं न वाजिनं हितम् । सप्तिं न वाजयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । विश्वायुऽवेपसम् । मर्यम् । न । वाजिनम् । हितम् । सप्तिम् । न । वाजयामसि ॥ ८.४३.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 25
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
We enthusiastically adore Agni as a friend, as a magnetic force that is our well wisher and giver of energy and success in life.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! त्याची विभूती पाहा. सूर्याला तो बल देणारा आहे. तोच सर्वांचा हितकर्ता आहे. त्याचीच उपासना करा. ॥२५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
विश्वायुवेपसम् । विश्वेषु सर्वेषु आयुः=गमनशीलं वेपो बलं यस्य तम् । सर्वबलप्रदमित्यर्थः । मर्य्यं न=मनुष्यमिव । हितं=हितकरम् । वाजिनम्=सर्वज्ञानमयम् । सप्तिन्न= सर्पणशीलमिव स्थितम् । अग्निम् । वाजयामसि=स्तुमः ॥२५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्निम्) उस परमात्मदेव को हम उपासक (वाजयामसि) पूजें स्तुति करें, जो (विश्वायुवेपसम्) सबमें बल देनेवाला है (मर्य्यम्+न) मित्र मनुष्य के समान (हितम्) हितकारी है, पुनः (वाजिनम्) स्वयं महाबलिष्ठ और सर्वज्ञानमय है, पुनः (सप्तिम्+न) मानो एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करनेवाला है । उस देव की उपासना करो ॥२५ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! उसकी विभूति देखो, सूर्य्यादिकों को भी वह बलप्रद है । वही सबका हितकारी है, उसी की उपासना करो ॥२५ ॥
विषय
सब को भयप्रद सर्वसञ्चालक प्रभु।
भावार्थ
जिस प्रकार हम ( विश्वायु-वेपसं मयं वाजयामसि ) समस्त मनुष्यों को कंपाने वाले बलवान् पुरुष को अधिक बल ऐश्वर्य से युक्त करते हैं। वा ( वाजिनं सप्तिं वाजयामसि ) बलशाली वेग से जाने वाले अश्व को अधिक तीव्र वेग से जाने के लिये प्रेरित करते हैं उसी प्रकार हम ( विश्वायु-वेपसं ) समस्त मनुष्यों को चलाने वाले, (वाजिनं) ज्ञानैश्वर्यवान् बली, ( हितम् ) सर्वहितकारी ( सप्तिं ) प्रकृति के सातों विकृतियों के स्वामी, (अग्निम् ) सर्वप्रकाशक का ( वाजयामसि ) समस्त गुणों से अलंकृत करते, उसकी स्तुति करते हैं। इति त्रयस्त्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सप्तिं न
पदार्थ
[१] (अग्निं) = उस परमात्मा को हम (वाजयामसि) = निवेदन करते हैं व प्रार्थना करते हैं, जो (सप्तिं न) = हमारे लिए एक अश्व के समान हैं। घोड़ा हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचाता है- प्रभु को अपना आधार बनाकर भी हम लक्ष्यस्थान पर पहुँचते हैं। [२] उस प्रभु को हम आराधित करते हैं, जो (विश्वायुवेपसं) [विश्व आयु वेप् ] = सब आक्रमण करनेवालों को कम्पित करनेवाले हैं ['एति' इति आयुः] काम-क्रोध आदि को हमारे से दूर करनेवाले हैं। (मर्यं न) = मनुष्यों के लिए हितकर के समान हैं। (वाजिनं) = शक्तिशाली हैं और (हितम्) = हितकर हैं अथवा सबके अन्दर स्थापित हैं।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु हमारे सब शत्रुओं को कम्पित करनेवाले मनुष्यमात्र के लिए हितकर व शक्तिशाली हैं। प्रभु को अपना आधार बनाकर के ही हम लक्ष्यस्थान पर पहुँचते हैं।
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