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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 43/ मन्त्र 29
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    तुभ्यं॒ घेत्ते जना॑ इ॒मे विश्वा॑: सुक्षि॒तय॒: पृथ॑क् । धा॒सिं हि॑न्व॒न्त्यत्त॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तुभ्य॑म् । घ॒ । इत् । ते । जनाः॑ । इ॒मे । विश्वाः॑ । सु॒ऽक्षि॒तयः॑ । पृथ॑क् । धा॒सिम् । हि॒न्व॒न्ति॒ । अत्त॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्यं घेत्ते जना इमे विश्वा: सुक्षितय: पृथक् । धासिं हिन्वन्त्यत्तवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्यम् । घ । इत् । ते । जनाः । इमे । विश्वाः । सुऽक्षितयः । पृथक् । धासिम् । हिन्वन्ति । अत्तवे ॥ ८.४३.२९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 43; मन्त्र » 29
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Those people far away and all these people settled here, all in their own ways, offer you homage as their haven and home for the gift of their own food and sustenance.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्याच्या कृपेनेच अन्नाची प्राप्ती होते. वायू, जल व सूर्याचा प्रकाश हे तिन्ही प्राण्यांच्या अस्तित्वाची परम साधने आहेत. ज्यांच्याशिवाय प्राणी क्षणमात्रही राहू शकत नाही, त्यांना त्याने मुबलक दिलेले आहे. या शिवाय विविध गहू, जव इत्यादी अन्नांची आवश्यकता असतेच. हे अन्न परमात्मा दान देत आहे. तोच देव उपास्य पूज्य आहे. ॥२९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! ते इमे जनाः । इमाश्च विश्वाः सर्वाः सुक्षितयः=प्रजाः । धासिमन्नम् । अत्तवे=अदनाय । अन्नानां प्राप्तये इत्यर्थः । तुभ्यं घ=तुभ्यमेव पृथक् । हिन्वन्ति=प्रीणयन्ति स्तुतिभिः ॥२९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे परमदेव ! (ते+इमे) वे ये दृश्यमान (जनाः) स्त्री-पुरुषमय जगत् तथा (विश्वाः) ये समस्त (सुक्षितयः) चराचर प्रजाएँ (धासिम्+अत्तवे) निज-२ आहार की प्राप्ति के लिये (तुभ्यम्+घ) तुझको ही (पृथक्) पृथक्-२ (हिन्वन्ति) प्रसन्न करती हैं ॥२९ ॥

    भावार्थ

    उसी की कृपा से अन्न की भी प्राप्ति होती है, वायु, जल और सूर्य्य का प्रकाश ये तीनों प्राणियों के अस्तित्व के परम साधन हैं, जिनके विना क्षणमात्र भी प्राणी नहीं रह सकता । उनको इसने बहुत-२ राशि में बना रक्खा है । तथापि इनको छोड़ विविध गेहूँ, जौ आदि अन्नों की आवश्यकता है । इन अन्नों को परमात्मा दान दे रहा है, अतः वही देव उपास्य पूज्य है ॥२९ ॥

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    विषय

    आत्मा के तीन रूप।

    भावार्थ

    ( अत्तवे धासिं ) भोक्ता जन को जिस प्रकार अन्न देते हैं उसी प्रकार ( इमे जनाः ) ये उत्पन्न हुए प्राणि, या लोक और ( विश्वाः सु-क्षितयः ) समस्त उत्तम मनुष्य ( पृथक) पृथक् २ (तुभ्यं अत्तवे घ इत् ) सब चराचर को अपने में लेने वाले तेरी ही ( धासिं हिन्वन्ति ) धारणा सामर्थ्य की स्तुति करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१, ९—१२, २२, २६, २८, २९, ३३ निचृद् गायत्री। १४ ककुम्मती गायत्री। ३० पादनिचृद् गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अत्तवे धासिं हिन्वन्ति

    पदार्थ

    [१] (इमे) = ये (ते) = वे (विश्वाः) = सब (सुक्षितयः) = उत्तम निवास व गतिवाले (जनाः) = मनुष्य (घा इत्) = निश्चय से (तुभ्यं) = आपकी प्राप्ति के लिए ही (अत्तवे) = खाने के लिए (पृथक्) = अलग-अलग (धासिं) = धारणात्मक भोजन को (हिन्वन्ति) = प्रेरित करते हैं । [२] प्रभु प्राप्ति के लिए शरीर को स्वस्थ रखना भी आवश्यक है। शरीर के स्वास्थ्य के लिए धारणात्मक भोजन का ही करना ठीक है। यह भोजन शरीरों की प्रकृति के पार्थक्य के कारण पृथक्-पृथक् ही होगा। यह ठीक है कि भोजन का भी उद्देश्य शरीर के स्वास्थ्य के द्वारा प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर बढ़ना ही होना चाहिए।

    भावार्थ

    भावार्थ - उत्तम निवासवाले लोग भोजन को भी प्रभु प्राप्ति के उद्देश्य से शरीर को स्वस्थ रखने के लिए करते हैं।

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