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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 47/ मन्त्र 4
    ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - आदित्याः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यस्मा॒ अरा॑सत॒ क्षयं॑ जी॒वातुं॑ च॒ प्रचे॑तसः । मनो॒र्विश्व॑स्य॒ घेदि॒म आ॑दि॒त्या रा॒य ई॑शतेऽने॒हसो॑ व ऊ॒तय॑: सु॒तयो॑ व ऊ॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मै॑ । अरा॑सत । क्षय॑म् । जी॒वातु॑म् । च॒ । प्रऽचे॑तसः । मनोः॑ । विश्व॑स्य । घ॒ । इत् । इ॒मे । आ॒दि॒त्याः । रा॒यः । ई॒श॒ते॒ । अ॒ने॒हसः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ । सु॒ऽऊ॒तयः॑ । वः॒ । ऊ॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मा अरासत क्षयं जीवातुं च प्रचेतसः । मनोर्विश्वस्य घेदिम आदित्या राय ईशतेऽनेहसो व ऊतय: सुतयो व ऊतय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मै । अरासत । क्षयम् । जीवातुम् । च । प्रऽचेतसः । मनोः । विश्वस्य । घ । इत् । इमे । आदित्याः । रायः । ईशते । अनेहसः । वः । ऊतयः । सुऽऊतयः । वः । ऊतयः ॥ ८.४७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 47; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Whoever these Adityas, powers of light, most wise, provide a peaceful shelter home for a comfortable living, that man’s wealth, power and honour they overwatch, control and rule for protection. Sinless are your protections, noble and holy your safeguards.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    याचा आशय असा की, सभासद ज्याला पारितोषिकरूप धन इत्यादी देतात त्याच्या धनाचे रक्षकही व्हावे. ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    प्रचेतसः=प्रकृष्टप्रज्ञाः परमज्ञानिनस्ते सभासदः । यस्मै पुरुषाय । क्षयं=गृहम् । जीवातुञ्च=जीवनसाधनोपायञ्च । अरासत=ददति तस्य । विश्वस्य=सर्वस्य मनोर्मनुष्यस्य (घ+इत्) रायो धनस्य इमे आदित्या ईशते । शिष्टं व्याख्यातम् ॥४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (प्रचेतसः) परमज्ञानी वे सभासद्जन (यस्मै) जिस सज्जन को (क्षयम्) निवासार्थ गृह (च) और (जीवातुम्) जीवनसाधनोपाय (अरासत) देते हैं (घ+इत्) निश्चय (इमे+आदित्याः) ये सभासद् उस (विश्वस्य+मनोः) सर्वकृपापात्र मनुष्य के (रायः) धन के ऊपर (ईशते) अधिकारी भी रखते हैं (अनेहसः) इत्यादि पूर्ववत् ॥४ ॥

    भावार्थ

    इसका आशय यह है कि सभासद् जिसको पारितोषिकरूप धनादि देवें, उसके धन के वे रक्षक भी होवें ॥४ ॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    ( प्र-चेतसः ) उत्तम ज्ञान से वा चित्त से सम्पन्न जन (यस्मै) जिसको ( क्षयं ) ऐश्वर्य और ( जीवातुं च ) (अरासत) प्रदान करते हैं ( इमे आदित्याः ) वे सूर्य के तुल्य ज्ञानी जन ( विश्वस्य मनोः घ ) समस्त मनुष्यों के उपयोगी (रायः ईशते ) धनों के स्वामी हो जाते हैं।

    टिप्पणी

    ( अनेहसः वः ० इत्यादि ) पूर्ववत्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित आप्त्य ऋषिः॥ १-१३ आदित्यः। १४-१८ आदित्या उषाश्च देवताः॥ छन्द:—१ जगती। ४, ६—८, १२ निचृज्जगती। २, ३, ५, ९, १३, १६, १८ भुरिक् त्रिष्टुप्। १०, ११, १७ स्वराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। अष्टादशर्चं सूक्तम्।

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    विषय

    विश्वस्य रायः ईशते

    पदार्थ

    [१] (अस्मा) = हमारे लिए, हे (आदित्यः) = अच्छाइयों का आदान करनेवाले दिव्यभावो ! आप (क्षयं) = उत्तम निवास को (च) = व (जीवातुं) = जीवनौषध को (अरासत) = दीजिए। [२] (इमे) = ये आदित्य (घा इत्) = निश्चय से (विश्वस्य) = सब (प्रचेतसः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले (मनोः) = विचारशील पुरुष के (रायः) = धनों के (ईशते) = ऐश्वर्यवाले हैं, अर्थात् ये आदित्य सब ज्ञानादि उत्तम ऐश्वर्यों को प्राप्त कराते हैं। (वः) = आपके (ऊतयः) = रक्षण (अनेहसः) = निष्पाप हैं-हमें पापशून्य जीवनवाला बनाते हैं। (वः ऊतयः) = आपके रक्षण (सु ऊतयः) = उत्तम रक्षण हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- आदित्यवृत्तियाँ हमारे लिए प्रकृष्ट ज्ञान के साथ सब आवश्यक धनों को प्राप्त कराती हैं।

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