ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 13
प्र ण॑ इन्दो म॒हे रण॒ आपो॑ अर्षन्ति॒ सिन्ध॑वः । यद्गोभि॑र्वासयि॒ष्यसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । नः॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । म॒हे । रणे॑ । आपः॑ । अ॒र्ष॒न्ति॒ । सिन्ध॑वः । यत् । गोभिः॑ । वा॒स॒यि॒ष्यसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ण इन्दो महे रण आपो अर्षन्ति सिन्धवः । यद्गोभिर्वासयिष्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । नः । इन्दो इति । महे । रणे । आपः । अर्षन्ति । सिन्धवः । यत् । गोभिः । वासयिष्यसे ॥ ९.६६.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 13
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे प्रकाशरूप परमात्मन् ! (नः) अस्माकं (महे रणे) ज्ञानयज्ञाय त्वया (गोभिः) ज्ञानेन्द्रियैरस्मच्छरीरं (वासयिष्यसे) निर्मितम्। अथ च (यत्) यदा (सिन्धवः) स्यन्दनशीलकर्मेन्द्रियाणि (आपः) कर्माणि (प्रार्षन्ति) प्राप्नुवन्ति, तदैव यज्ञपूर्तिर्भवति ॥१३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे प्रकाशरूप परमात्मन् ! (नः) हमारे (महे रणे) ज्ञानरूप यज्ञ के लिए आपने (गोभिः) ज्ञानेन्द्रियों द्वारा हमारे शरीर का (वासयिष्यसे) निर्माण किया है और (यत्) जब (सिन्धवः) स्यन्दनशील कर्मेन्द्रियाँ (आपः) कर्मों को (प्रार्षन्ति) प्राप्त होती हैं, तब हमारे इस बृहत् यज्ञ की पूर्ति होती है ॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा ने ज्ञान और कर्म का समुच्चय कथन किया है कि जब ज्ञान और कर्म दोनों मिलते हैं, तब ही यज्ञ की पूर्ति होती है, अन्यथा नहीं ॥१३॥
विषय
महान् रण के लिये
पदार्थ
[१] हे (इन्द्रो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! (सिन्धवः आपः) = शरीर में प्रवाहित होनेवाले रेत:कण (नः) = हमें (महे रणे) = इस महत्त्वपूर्ण जीवन-संग्राम के निमित्त (प्र अर्षन्ति) = प्राप्त होते हैं । इन रेत: कणों के द्वारा ही हम इस जीवन-संग्राम में विजयी बनेंगे । [२] हे इन्दो ! यह सब तब होता है (यद्) = जब कि (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (वासयिष्यसे) = शरीर में वसाया जाता है। जब हम स्वाध्याय में प्रवृत्त होते हैं तो ये सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर शरीर में ही सुरक्षित रहते हैं। उस समय ये रोगकृमियों व लोभ आदि अशुभ- वृत्तियों को भी विनष्ट करके हमें इस महान् जीवन-संग्राम में विजयी बनाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर में स्वाध्याय द्वारा सुरक्षित सोमकण हमें जीवन संग्राम में विजय प्राप्त करानेवाले होते हैं ।
विषय
शिष्य के प्रति विद्वानों का कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्दो) गुरु वा प्रभु की उपासना करने वाले शिष्य ! उपासक ! (यत् गोभिः वासयिष्यसे) जब तू ज्ञानवाणियों द्वारा आच्छादित होगा, उनसे वा उनके निमित्त गुरु-गृह में रक्खा जावे, तब (सिन्धवः) तुझे उत्तम नियमों में बांधने वाले (नः) हम में से (आप) आप्त जन (महे रणे) बड़े भारी उपदेश के निमित्त (अर्षन्ति) तुझे अच्छी प्रकार प्राप्त हों और ज्ञान प्रदान करें। (२) उसी प्रकार जब शिष्य वाणियों में निष्ठ हों तो हमारी बहती जल धाराएं उसे स्नान करावें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O spirit of Soma energy and existential flow, Indu, in this great battle field of life, thoughts, energies and actions flow, rivers and seas flow, when you energise and vibrate with the dynamics of Prakrti.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराने ज्ञान व कर्माचा समुच्चय केला पाहिजे हे सांगितलेले आहे. जेव्हा ज्ञान व कर्म दोन्ही एकत्र येतात तेव्हाच यज्ञाची पूर्ती होते, अन्यथा नाही. ॥१३॥
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