ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 66/ मन्त्र 24
पव॑मान ऋ॒तं बृ॒हच्छु॒क्रं ज्योति॑रजीजनत् । कृ॒ष्णा तमां॑सि॒ जङ्घ॑नत् ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑मानः । ऋ॒तम् । बृ॒हत् । शु॒क्रम् । ज्योतिः॑ । अ॒जी॒ज॒न॒त् । कृ॒ष्णा । तमां॑सि । जङ्घ॑नत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमान ऋतं बृहच्छुक्रं ज्योतिरजीजनत् । कृष्णा तमांसि जङ्घनत् ॥
स्वर रहित पद पाठपवमानः । ऋतम् । बृहत् । शुक्रम् । ज्योतिः । अजीजनत् । कृष्णा । तमांसि । जङ्घनत् ॥ ९.६६.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 66; मन्त्र » 24
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
तदा (पवमानः) पवित्रकर्ता जगदीश्वरः (बृहत्) महत् (शुक्रम्) बलरूपं (ऋतं ज्योतिः) सत्यरूपप्रकाशम् (अजीजनत्) उत्पादयति। अथ च (कृष्णा) नीलवर्णानि (तमांसि) तिमिराणि (जङ्घनत्) नाशयति ॥२४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
तब (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाला परमात्मा (बृहत्) बड़े (शुक्रम्) बलस्वरूप (ऋतं ज्योतिः) सत्यरूप प्रकाश को (अजीजनत्) पैदा करता है और (कृष्णा) काले (तमांसि) अन्धकारों को (जङ्घनत्) नाश करता है ॥२४॥
भावार्थ
परमात्मा के साक्षात्कार से अज्ञान की निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। अथवा यों कहो कि “सता सौम्य तदा सम्पन्नो भवति” उस समय योगी सद्ब्रह्म के साथ सह अवस्थान को प्राप्त होता है। अर्थात् उस समय सद्ब्रह्म से भिन्न और कुछ प्रतीत नहीं होता। इसी अभिप्राय से योगसूत्र में लिखा है कि “ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा” उस समय सद्रूप ब्राह्मी प्रज्ञा हो जाती है। ऋत, सत्य ये पर्यायशब्द हैं ॥२४॥
विषय
'ऋतमय - ज्योतिष्मान' जीवन
पदार्थ
[१] (पवमानः) = यह पवित्र करनेवाला सोम (बृहत् ऋतम्) = वृद्धि के कारणभूत ऋत को, कार्यों में नियमितता को तथा (शुक्रं ज्योतिः) = देदीप्यमान ज्ञान- ज्योति को (अजीजनत्) = उत्पन्न करता है । सोम रक्षण के द्वारा हमारा जीवन ऋतमय व ज्योतिष्मान् बनता है । [२] यह सोम (कृष्णा तमांसि) = काले अन्धकारों को, घने अज्ञानान्धकारों को (जङ्घनत्) = विनष्ट करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से जीवन 'ऋतमय ज्योतिष्मान्' बनता है। अज्ञानान्धकार नष्ट होता है।
विषय
उसका कर्त्तव्य अज्ञान नाश।
भावार्थ
(पवमानः) सब को पवित्र करने वाला, (बृहत्) बड़ा (शुक्रम्) शुद्ध (ऋतम्) सत्य ज्ञानमय (ज्योतिः) प्रकाश को (अजीजनत्) प्रकट करता है। वही (कृष्णा तमांसि) कष्टदायी, काले अन्धकारों को सूर्यवत् (जंघनत्) विनाश करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शतं वैखानसा ऋषयः॥ १–१८, २२–३० पवमानः सोमः। १९—२१ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ पादनिचृद् गायत्री। २, ३, ५—८, १०, ११, १३, १५—१७, १९, २०, २३, २४, २५, २६, ३० गायत्री। ४, १४, २२, २७ विराड् गायत्री। ९, १२,२१,२८, २९ निचृद् गायत्री। १८ पाद-निचृदनुष्टुप् ॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Pure, purifying and self-dynamic, it brings into existential manifestation the law and the mighty nature’s model of the cosmos and the refulgent radiations of light, dispelling and replacing the darkness and negations of existence.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्म्याच्या साक्षात्काराने अज्ञानाची निवृत्ती व परमानंदाची प्राप्ती होते किंवा ‘‘सता सौम्य तदा सम्पन्नौ भवति’’ त्यावेळी योगी सद्रूप ब्रह्माबरोबर सह अवस्थानाला प्राप्त करतो. अर्थात त्यावेळी सद्रूप ब्रह्मापेक्षा भिन्न दुसरे काहीही प्रतीत होत नाही. त्यामुळे योगसूत्रात हे लिहिलेले आहे की ‘‘ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा’’ त्यावेळी सद्रूप ब्राह्मी प्रज्ञा होत. ऋत, सत्य हे पर्याय शब्द आहेत. ॥२४॥
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