यजुर्वेद - अध्याय 15/ मन्त्र 37
ऋषिः - परमेष्ठी ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
29
क्ष॒पो रा॑जन्नु॒त त्मनाग्ने॒ वस्तो॑रु॒तोषसः॑। स ति॑ग्मजम्भ र॒क्षसो॑ दह॒ प्रति॑॥३७॥
स्वर सहित पद पाठक्ष॒पः। रा॒ज॒न्। उ॒त। त्मना॑। अग्ने॑। वस्तोः॑। उ॒त। उ॒षसः॑। सः। ति॒ग्म॒ज॒म्भेति॑ तिग्मऽजम्भ। र॒क्षसः॑। द॒ह॒। प्रति॑ ॥३७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्षपो राजन्नुत त्मनाग्ने वस्तोरुतोषसः । स तिग्मजम्भ रक्षसो दह प्रति ॥
स्वर रहित पद पाठ
क्षपः। राजन्। उत। त्मना। अग्ने। वस्तोः। उत। उषसः। सः। तिग्मजम्भेति तिग्मऽजम्भ। रक्षसः। दह। प्रति॥३७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्याह॥
अन्वयः
हे तिग्मजम्भ राजन्नग्ने! स त्वं यथा तीक्ष्णतेजा अग्निः क्षप उत वस्तोरुतोषसो जनयति तथा सुशिक्षां जनय रक्षसस्तम इव तीव्रत्मना प्रति दह॥३७॥
पदार्थः
(क्षपः) रात्रीः (राजन्) राजमान (उत) (त्मना) आत्मना। अत्र छान्दसो वर्णलोपः [अ॰वा॰८.२.२५] इत्याकारलोपः (अग्ने) विद्वन्! (वस्तोः) दिनम् (उत) (उषसः) प्रातः सायं समयान् (सः) उक्तः (तिग्मजम्भ) तिग्मं तीव्रं जम्भो गात्रविनामनं यस्मात् तत्संबुद्धौ (रक्षसः) दुष्टान् (दह) भस्मीकुरु (प्रति) प्रत्यक्षे॥३७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा प्रभातस्य दिनस्य रात्रेश्च निमित्तमग्निर्विज्ञायते तथा राजा न्यायप्रकाशस्यान्यायनिवृत्तेश्च हेतुरस्तीति वेद्यम्॥३७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (तिग्मजम्भ) तीक्ष्ण अवयवों के चलाने वाले (राजन्) प्रकाशमान (अग्ने) विद्वान् जन! (सः) सो पूर्वोक्त गुणयुक्त आप जैसे तीक्ष्ण तेजयुक्त अग्नि (क्षपः) रात्रियों (उत) और (वस्तोः) दिन के (उत) ही (उषसः) प्रभात और सायंकाल के प्रकाश को उत्पन्न करता है, वैसे (त्मना) तीक्ष्ण स्वभाव युक्त अपने आत्मा से (रक्षसः) दुष्ट जनों को रात्रि के समान (प्रतिदह) निश्चय करके भस्म कीजिये॥३७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे प्रभात, दिन और रात्रि का निमित्त अग्नि को जानते हैं, वैसे राजा न्याय के प्रकाश और अन्याय की निवृत्ति का हेतु है, ऐसा जानें॥३७॥
विषय
शत्रुनाश का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( राजन् ) राजन् ! तेजस्विन्! हे (अग्ने) अग्ने ! हे ( तिग्म जम्भ ) तीक्ष्ण होकर शत्रुओं के अंग भंग करने वाले ! (तिग्मजम्भ ) वज्र के समान या वज्र या खड्ग रूप दंष्ट्रा वाले, खड्गों से शत्रु को खा जाने वाले राजन् ! ( क्षपः ) रात्रि के अवसरों में ( वस्तोः उत उषसः ) दिन और प्रातः कालों के अवसरों में भी और सदा सब काल में ( सः) वह तू ( रक्षसः ) प्रजा के नाशक राक्षसों को ( प्रति दह ) एक २ करके भस्म कर डाल।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निदेवता । निचृदुष्णक् । ऋषभः ॥
विषय
तिग्म-जम्भ-रक्षो-दहन
पदार्थ
१. हे (तिग्मजम्भ) = [तिग्म-वज्र] वज्र के समान दंष्ट्रावाले अथवा तीक्ष्ण दंष्ट्रावाले ! (राजन्) = राष्ट्र के जीवन को व्यवस्थित करनेवाले राजन्! (अग्ने) = राष्ट्र को उन्नत करनेवाले अग्रेणी ! (सः) = वे आप (त्मना) = स्वयं (क्षपः) = रात्रि में [नि० १।७] (उत) = और (वस्तोः) = दिन में [नि० १।९] (उत) = और (उषसः) = उषःकालों में (रक्षसः) = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाले लोगों को (प्रतिदह) = एक-एक को भस्म कर दीजिए । २. यहाँ 'तिग्मजम्भ' शब्द स्पष्ट कह रहा है कि राजा को राक्षसी वृत्तिवालों के लिए तीव्र दण्डवाला होना है । ३. राजा ने उचित दण्ड- व्यवस्था के द्वारा प्रजा के जीवन को व्यवस्थित [regulated] करना है। तभी तो वह 'राजा' कहलाने के योग्य होगा । ४. प्रजा के व्यवस्थित जीवन के द्वारा राष्ट्र की उन्नति करनेवाला, राष्ट्र को आगे ले चलनेवाला यह राजा 'अग्नि' है। ५. यह सब कार्य उसे स्वयं करना है। ऐसा संकेत 'त्मना' शब्द कर रहा है। कर्मचारी वर्ग पर कार्यभार डालकर वह स्वयं आमोद-प्रमोद में ही न फँस जाए। ६. राजा ने अपने इस कार्य में क्या दिन क्या रात व क्या उषःकाल सदा लगे रहना है। उसे तो 'जागृवि' बनना है। सदा जागते रहकर प्रजा का हित साधन करना है। ७. ऐसी सब व्यवस्था होने पर ही राष्ट्र में राक्षसी वृत्ति के लोग नहीं पनप पाते और राष्ट्र दिन-ब-दिन उन्नति के पथ पर आगे बढ़ता है।
भावार्थ
भावार्थ - राजा यथार्हदण्ड होकर राष्ट्र में राक्षसी वृत्ति का अन्त करे। इस सुरक्षित राष्ट्र में सब व्यक्ति उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी हा दिवस आणि रात्र होण्याचे निमित्त आहे तसा राजा हा न्यायी असून अन्यायाचे निवारण करणारा असला पाहिजे हे माणसांनी जाणावे.
विषय
पुनश्च, तो अग्नी कसा आहे, याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (तिग्मजम्भ:) तीक्ष्ण अस्त्रशस्त्रांचे संचालन करणारे वा शस्त्रांनी युद्ध करणारे (राजन्) कीर्तिमान राजा आणि (अग्ने) हे विद्वान, (स:) पूर्वी वर्णित केलेला (गुण, कर्म, स्वभाव असलेला तेजोमय अग्नी) (क्षप:) रात्र (उत) आणि वस्ते:) दिवस (उत) आणि (वस्तेव:) दिवस (उत) आणि (उषस:) प्रभातकाळ व संध्याकाळ उत्पन्न करतो (अग्नीच्या सूर्य, विद्युत भौतिक आग या रुपांनी प्रकाश आणि दिवस-रात्र होतात). त्याप्रमाणे आपण (त्मना) आपल्या प्रभावी व तेजस्वी आत्मशक्तीद्वारे (रक्षस:) अग्नी जसा रात्रीच्या अंधकाराला, तसे आपण समाजातील दुष्ट माणसांना (प्रतिदह) अवश्यमेव भस्म करून टाका ॥37॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे प्रभातकाळ, दिवस आणि रात्र यांचे कारण अग्नी आहे, त्याप्रमाणे राजा न्यायरूप प्रकाशाद्वारे अन्यायरुप रात्रीच्या अंधकाराला दूर करीत असतो. सर्व मनुष्यांनी हे तथ्य नीट जाणून घ्यावे ॥37॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O resplendent learned person, with powerful limbs, just as the sharp fire creates the night, day, morning and evening, so shouldst thou spread good instruction. Like fire burn the wicked with the force of thy soul.
Meaning
That same Agni, bright and blazing, thunderous force of relentless justice, power operative with your essential light and spirit in the day, in the night and at the dawn, burn with the same fiery essence the evil, the night walkers, daylight robbers and the darkness at dawn.
Translation
O shining fire divine, may you drive off at night and at dawn the pollutants with your sharp flames. (1)
Notes
Vastoḥ,रत्रिसम्बंधिन:, belonging to night; of night. Uşasaḥ, of dawn; in the morning. Tigmajambha, तिग्मा तीक्ष्णा जम्भा दंष्ट्रा यस्य, one with sharp teeth. Or, तिग्मं इति वज्रनाम; वज्रदंष्ट्र; one with hard and terrible teeth. Raksasaḥ prati, towards the Rākṣasas; against the germs and the pollutants. Kṣapaḥ, क्षपयिता, destroyer.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স কীদৃশ ইত্যাহ ॥
পুনঃ সে কেমন, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (তিগ্মজম্ভ) তীক্ষ্ন অবয়ব চালনকারী (রাজন্) প্রকাশমান (অগ্নে) বিদ্বান্গণ! (সঃ) সেই পূর্বোক্ত গুণযুক্ত আপনারা যেমন তীক্ষ্ম তেজযুক্ত অগ্নি (ক্ষপঃ) রাত্রিসমূহ (উত) এবং (বস্তোঃ) দিনের (উত) ই (উষসঃ) প্রভাত ও সায়ংকালের প্রকাশকে উৎপন্ন করেন সেইরূপ (ত্মনা) তীক্ষ্ন স্বভাব যুক্ত স্বীয় আত্মা হইতে (রক্ষসঃ) দুষ্টদিগকে রাত্রির সমান (প্রতিদহ) নিশ্চয় করিয়া ভস্ম করুন ॥ ৩৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, যেমন প্রভাত, দিন ও রাত্রির নিমিত্ত অগ্নিকে জানে সেইরূপ রাজা ন্যায়ের প্রকাশ এবং অন্যায়ের নিবৃত্তির হেতু এমন জানিবে ॥ ৩৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ক্ষ॒পো রা॑জন্নু॒ত ত্মনাগ্নে॒ বস্তো॑রু॒তোষসঃ॑ ।
স তি॑গ্মজম্ভ র॒ক্ষসো॑ দহ॒ প্রতি॑ ॥ ৩৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ক্ষপো রাজন্নিত্যস্য পরমেষ্ঠী ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদুষ্ণিক্ ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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