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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    22

    प्रा॒णः प्र॒जा अनु॑ वस्ते पि॒ता पु॒त्रमि॑व प्रि॒यम्। प्रा॒णो ह॒ सर्व॑स्येश्व॒रो यच्च॑ प्रा॒णति॒ यच्च॒ न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒ण: । प्र॒ऽजा: । अनु॑ । व॒स्ते॒ । पि॒ता । पु॒त्रम्ऽइ॑व । प्रि॒यम् । प्रा॒ण: । ह॒ । सर्व॑स्‍य । ई॒श्व॒र: । यत् । च॒ । प्रा॒णति॑ । यत् । च॒ । न ॥६.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणः प्रजा अनु वस्ते पिता पुत्रमिव प्रियम्। प्राणो ह सर्वस्येश्वरो यच्च प्राणति यच्च न ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राण: । प्रऽजा: । अनु । वस्ते । पिता । पुत्रम्ऽइव । प्रियम् । प्राण: । ह । सर्वस्‍य । ईश्वर: । यत् । च । प्राणति । यत् । च । न ॥६.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (6)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्राणः) प्राण [जीवनदाता परमेश्वर] (प्रजाः) सब उत्पन्न प्राणियों को (अनु) निरन्तर (वस्ते) ढक लेता है, (इव) जैसे (पिता) पिता (प्रियम्) प्रिय (पुत्रम्) पुत्र को [वस्त्र आदि से]। (प्राणः) प्राण [परमेश्वर] (ह) ही (सर्वस्य) सबका (ईश्वरः) ईश्वर है, (यत् च) जो कुछ भी (प्राणति) श्वास लेता है, (यत् च) और जो (न) नहीं श्वास लेता है ॥१०॥

    भावार्थ

    मनुष्य जगत्स्वामी परमेश्वर को सब चर और अचर सृष्टि में व्यापक जानकर अपना ऐश्वर्य बढ़ावे ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(प्राणः) जीवनप्रदः परमेश्वरः (प्रजाः) उत्पद्यमाना मनुष्याद्याः (अनु) अनुक्रमेण (वस्ते) आच्छादयति (पिता) जनकः (पुत्रम्) दुःखात् त्रातारं सुतम् (इव) यथा (प्रियम्) स्निग्धम् (ह) एव (सर्वस्य) चराचरस्य (ईश्वरः) म० १। स्वामी (यत्) यत्किंचिज् जङ्गमात्मकं वस्तु (प्राणति) प्राणिति। प्राणव्यापारं करोति (यत् च) स्थावरात्मकम् (न) निषेधे ॥

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( पिता पुत्रम् इव प्रियम्  ) = जैसे दयालु पिता अपने प्यारे पुत्र को वस्त्र से आच्छादन करता है, वैसे ही  ( प्राणः ) = चेतन स्वरूप प्राण देव प्रभु ( प्रजा अनु वस्ते ) = मनुष्य पशु, पक्षी आदि प्रजाओं के शरीरों में व्याप्त हो कर बस रहा है, ( यत् च प्राणति ) = और जो जङ्गम वस्तु चलन आदि व्यापार कर रही है   ( यत् च न ) = और जो स्थावर वस्तु वह व्यापार नहीं करती,  ( प्राणः ह सर्वस्य ईश्वर: ) = उस चर-अचर स्वरूप सब जगत् का चेतनस्वरूप प्राण ही ईश्वर है, अर्थात् सबका प्रेरक स्वामी है। 

    भावार्थ

    भावार्थ = हे परमेश्वर ! आप चराचर सब जगत् में व्याप रहे हैं, ऐसी कोई  वस्तु वा स्थान नहीं, जहाँ आपकी व्याप्ती  न हो, आप ही सारे संसार के कर्ता, हर्ता और स्वामी हैं, सब की क्षण-क्षण चेष्टाओं को देख रहे हैं, आपसे किसी की कोई बात भी छिपी नहीं, इसलिए हमें सदाचारी और अपना प्रेमी भक्त बनावें, जिन को देख कर आप प्रसन्न हों ।

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    विषय

    सर्वस्य ईश्वरः प्राण:

    पदार्थ

    १. (प्राण:) = प्राण (प्रजा:) = देव, तिर्यक मनुष्य आदि सब प्रजाओं को (अनुवस्ते) = अनुक्रमेण आच्छादित किये हुए हैं। उनके शरीरों को नाड़ियों के द्वारा व्याप्त करके रह रहा है। यह प्राण प्रजाओं को इसप्रकार आच्छादित किये हुए हैं, (इव) = जैसेकि पिता (प्रियं पुत्रम्) = अपने प्रिय पुत्र को अपने वस्त्र से आच्छादित करता है। २. (यत् च) = और जो जङ्गमात्मक वस्तु (प्राणति) = प्राणन व्यापार करती है( यत् च न) = और जो स्थावरात्मक वस्तु प्राणन-व्यापार नहीं करती, (प्राण:) = प्राण (ह) = निश्चय से (सर्वस्य) = उस सबका (ईश्वर:) = ईश्वर है। स्थावरों में भी आत्मा से अविनाभूत यह प्राण निरुद्धगतिवाला होता हुआ अन्दर है ही।

    भावार्थ

    प्राण सब प्रजाओं को अपने से आच्छादित करके सब रोगों के आक्रमणों से बचाता है।

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    भाषार्थ

    (प्राणः) प्राण (प्रजाः) प्रजाओं को (अनु वस्ते) सातत्येन आच्छादित कर रहा हैं, (इव) जैसे कि (पिता प्रियम् पुत्रम्) पिता प्रिय पुत्र को वस्त्रों द्वारा आच्छादित करता है। (प्राण (ह) निश्चय से (सर्वस्य) सव का (ईश्वरः) अधीश्वर है, (यत् च प्राणति, यत् च न) जो कि प्राणधारी है, और जो प्राणधारी नहीं।

    टिप्पणी

    [प्रजाः = उत्पन्न सब पदार्थ। वस्ते= वस आच्छादने। "प्राण" द्वारा अन्तरिक्षस्थ वायु तथा सर्वेश्वर का ग्रहण है। वायु और सर्वेश्वर निज स्वरूपों द्वारा, सब का आच्छादन करते हैं, और पिता वस्त्रों द्वारा पुत्र का आच्छादन करता है। वायु तो फिर भी अल्पस्थान व्यापी है, उस का स्थान अन्तरिक्ष है, परन्तु सर्वेश्वर समग्र ब्रह्माण्ड व्यापी है। जहां वायु नहीं यहां भी वह व्यापी है। अतः मन्त्र में वायु का वर्णन गौणरूप में, तथा सर्वेश्वर का वर्णन मुख्यरूप में अभिप्रेत है]।

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (पिता प्रियम् पुत्रम् इव) पिता जिस प्रकार प्रिय पुत्र के प्रति उत्पादक, जीवनप्रद, पालक पोषक है उसी प्रकार (प्राणः प्रजाः अनु वस्ते) प्राणस्वरूप परमेश्वर समस्त प्रजाओं के प्रति उनका उत्पादक, जीवनप्रद, पालक और पोषक है। वह (प्राणः) प्राण (यत् च प्राणति यत् च न) जो प्राण लेता है और जो प्राण नहीं भी लेता है (सर्वस्य ईश्वरः) उस सबका ईश्वर अर्थात् स्वामी हैं। यह सब उसी का ऐश्वर्य या विभूति है। वह उसका कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, संहर्त्ता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘प्रजानु’ (च०) ‘यश्च प्राणति यश्च न’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (प्राणः प्रजाः-अनुवस्ते पिता प्रियं पुत्रम्-इव) प्राण समस्त प्रजायमान प्राणियों के अनुकूल होकर रक्षण करता है, जैसा पिता प्यारे पुत्र का अनुकूल रक्षण करता है (प्राण:-ह सर्वस्य ईश्वरः-यत्-च प्राणति यत् च-न) प्राण अवश्य सबका स्वामी है जो प्राण लेता है- जङ्गम, या नहीं लेता-स्थावर ॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    Prana protects, promotes and abides by all forms of existence as father protects, promotes and abides by the child, as things are in the nature of life and love. Prana is the overall master, ruler and controller over all, all that breathe and all that breathe not. (Refer also to Prashnopanishad, 1, 4 ff.)

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    Translation

    Breath clothes (anu-vas) human beings (praja), as a father a dear son; breath is lord of all, both what breathes and what does not.

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    Translation

    Prana covers with protection all the creatures like father to his son. Prana has its control on whatever breathes and whatever does not breathe.

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    Translation

    God nourishes living creatures as a father his beloved son. God is sovereign Lord of all, of all that breathes, all that breathes not.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(प्राणः) जीवनप्रदः परमेश्वरः (प्रजाः) उत्पद्यमाना मनुष्याद्याः (अनु) अनुक्रमेण (वस्ते) आच्छादयति (पिता) जनकः (पुत्रम्) दुःखात् त्रातारं सुतम् (इव) यथा (प्रियम्) स्निग्धम् (ह) एव (सर्वस्य) चराचरस्य (ईश्वरः) म० १। स्वामी (यत्) यत्किंचिज् जङ्गमात्मकं वस्तु (प्राणति) प्राणिति। प्राणव्यापारं करोति (यत् च) स्थावरात्मकम् (न) निषेधे ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    প্রাণঃ প্রজা অনু বস্তে পিতা পুত্রমিব প্রিয়ম্।

    প্রাণো হ সর্বস্যেশ্বরো য়চ্চ প্রাণতি য়চ্চ ন।। ১০।।

    (অথর্ব ১১।৪।১০)

    পদার্থঃ (পিতা পুত্রম্ ইব প্রিয়ম্) যেভাবে দয়ালু পিতা তার পুত্রকে বস্ত্র দ্বারা আচ্ছাদন করে, সেভাবেই (প্রাণঃ) চেতন স্বরূপ প্রাণদেব পরমাত্মা (প্রজা অনুবস্তে) মানুষ, পশু, পাখি প্রভৃতি জীবের শরীরে ব্যাপ্ত হয়ে বাস করছেন। (য়ৎ চ প্রাণতি) আর যেসকল প্রাণযুক্ত জঙ্গম বস্তু, (য়ৎ চ ন) আর যেসকল প্রাণহীন, (প্রাণঃ হ সর্বস্য ঈশ্বরঃ) সেই চর, অচর স্বরূপ সব জগতের চেতন স্বরূপ প্রাণই ঈশ্বর, অর্থাৎ সকলের প্রেরক স্বামী। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে পরমেশ্বর! তুমি চরাচর সম্পূর্ণ জগতে ব্যাপ্ত হয়ে আছ। এমন কোনো বস্তু বা স্থান নেই যেখানে তোমার ব্যাপ্তি নেই, তুমিই সারা সংসারের হর্তা-কর্তা, বিধাতা। প্রতি ক্ষণে তুমি সমস্ত কিছুই দেখছ, তোমার কাছে কারো কোনো কথা লুকানো নেই। এজন্য আমাদেরকে সদাচারী আর তোমার প্রেমী ভক্ত বানাও, যার দ্বারা আমরা উত্তমরূপে থাকতে পারি।।১০।।

     

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