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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भार्गवो वैदर्भिः देवता - प्राणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - प्राण सूक्त
    20

    प्रा॒णो मृ॒त्युः प्रा॒णस्त॒क्मा प्रा॒णं दे॒वा उपा॑सते। प्रा॒णो ह॑ सत्यवा॒दिन॑मुत्त॒मे लो॒क आ द॑धत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒ण: । मृ॒त्यु: । प्रा॒ण: । त॒क्मा । प्रा॒णम् । दे॒वा: । उप॑ । आ॒स॒ते॒ । प्रा॒ण: । ह॒ । स॒त्य॒ऽवा॒दिन॑म् । उ॒त्ऽत॒मे । लो॒के । आ । द॒ध॒त् ॥६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणो मृत्युः प्राणस्तक्मा प्राणं देवा उपासते। प्राणो ह सत्यवादिनमुत्तमे लोक आ दधत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राण: । मृत्यु: । प्राण: । तक्मा । प्राणम् । देवा: । उप । आसते । प्राण: । ह । सत्यऽवादिनम् । उत्ऽतमे । लोके । आ । दधत् ॥६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 4; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (6)

    विषय

    प्राण की महिमा का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्राणः) प्राण [जीवनदाता परमेश्वर] (मृत्युः) मृत्यु और (प्राणः) प्राण (तक्मा) जीवन को कष्ट देनेवाला [ज्वर आदि रोग] है, (प्राणम्) प्राण की (देवाः) विद्वान् लोग (उप आसते) उपासना करते हैं। (प्राणः) प्राण [जीवनदाता परमेश्वर] (ह) ही (सत्यवादिनम्) सत्यवादी को (उत्तमे लोके) उत्तम लोक पर (आ दधत्) स्थापित कर सकता है ॥११॥

    भावार्थ

    ईश्वरीय नियम से विरुद्ध चलने पर मनुष्य मृत्यु और रोग को पाते हैं। विद्वान् लोग इसलिये परमात्मा की उपासना करते और जितेन्द्रिय होकर अपने श्वास-प्रश्वास को वश में करते हैं कि वे सत्यवादी होकर श्रेष्ठ पद पावें ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(प्राणः) जीवनप्रदः परमेश्वरः (मृत्युः) मरणस्य कर्त्ता (तक्मा) अ० १।२५।१। कृच्छ्रजीवनकरो ज्वरादिरोगः (देवाः) विद्वांसः (उपासते) सेवन्ते (ह) एव (सत्यवादिनम्) यथार्थवक्तारम् (उत्तमे) उत्कृष्टे (लोके) दर्शनीये स्थाने (आ दधत्) लेटि रूपम्। स्थापयेत् ॥

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( प्राणो मृत्युः ) = प्राण ही मृत्यु है।  ( प्राणः तक्मा ) = प्राण ही आनन्द करनेवाला है ।  ( देवाः प्राणम् उपासते ) = विद्वान् लोग सबके जीवन हेतु ईश्वर की उपासना करते हैं।  ( प्राणः ह ) = प्राण ही निश्चय से  ( सत्यवादिनम् ) = सत्यवादी मनुष्य को  ( उत्तमे लोके ) = उत्तम शरीर में अथवा श्रेष्ठ स्थान में  ( आ दधत् ) = धारण कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ =  वेदान्त शास्त्र निर्माता व्यास जी महाराज लिखते हैं, 'अत एवं प्राण:' जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयादि कर्ता होने से प्राण शब्द का अर्थ परमात्मा जानना चाहिये न कि प्राण वायु। इसलिए सब चेष्टाओं का कारण होने से परमात्मा का नाम प्राण है। ऐसा परमेश्वर ही हमारे जन्म, मृत्यु का कर्ता और अनेकविध सुख का दाता है। प्राणरूप परमेश्वर ही सत्यवादी, सत्यकर्ता, सत्यमानी और सच्चाई के ही प्रचार करनेवाले पुरुष को  उत्तम लोक प्राप्त कराता है। लोक शब्द का अर्थ उत्तम शरीर, उत्तम ज्ञान, और उत्तम स्थान है। यह बात निश्चित हैं कि ऐसे पुरुष को परमात्मा उत्तम लोक आदि प्राप्त कराता है।

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    विषय

    प्राणसाधना से उत्तम लोक

    पदार्थ

    १. (प्राणः मृत्युः) = यह 'प्राण' देव ही अपने निर्गमन के द्वारा सब प्राणियों का मारणकर्ता होता है तथा (प्राण: तक्मा) = प्राण ही, पूर्ण स्वस्थगतिवाला न होता हुआ, ज्वरादि रोगों का कारण बनता है। (देवा:) = शरीरस्थ सब इन्द्रियाँ (प्राणं उपासते) = इस प्राण की ही उपासना करती हैं सब इन्द्रियों में वस्तुत: प्राणशक्ति ही कार्य करती है। ('प्राण: वाव इन्द्रियाणि')। २. (प्राणः ह) = प्राण ही निश्चय से (सत्यवादिनम्) = सत्यवादी पुरुष को (उत्तमे लोके आदधत्) = उत्तम लोक में धारण करता है। प्राणसाधना से जैसे शरीर से रोग नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार इस साधना से मन से असत्य दूर भाग जाता है, इसप्रकार इस साधक की उत्तम गति होती है।

    भावार्थ

    प्राण का बहिर्गमन ही मृत्यु है, इसकी अस्वस्थ गति ही रोग है। सब इन्द्रियों में प्राणशक्ति ही कार्य करती है। प्राणसाधना से मानस दोष भी दूर होकर उत्तम लोक की प्राप्ति होती है।

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    भाषार्थ

    [प्रजाः = उत्पन्न सब पदार्थ। वस्ते= वस आच्छादने। "प्राण" द्वारा अन्तरिक्षस्थ वायु तथा सर्वेश्वर का ग्रहण है। वायु और सर्वेश्वर निज स्वरूपों द्वारा, सब का आच्छादन करते हैं, और पिता वस्त्रों द्वारा पुत्र का आच्छादन करता है। वायु तो फिर भी अल्पस्थान व्यापी है, उस का स्थान अन्तरिक्ष है, परन्तु सर्वेश्वर समग्र ब्रह्माण्ड व्यापी है। जहां वायु नहीं यहां भी वह व्यापी है। अतः मन्त्र में वायु का वर्णन गौणरूप में, तथा सर्वेश्वर का वर्णन मुख्यरूप में अभिप्रेत है]।

    टिप्पणी

    [मृत्युः = परमेश्वर को मृत्यु कहा है। परमेश्वर से अतिरिक्त कोई मृत्यु-देवता नहीं। यथा “स एव मृत्युः सोऽमृतं सोऽभ्वं स रक्षः" (अथर्व० १३।४। पर्याय ३।२५)। परमेश्वर ही प्राणियों के कर्मफलरूप में मृत्यु, ज्वर आदि का प्रदाता, और सत्यवादी को उत्कृष्ट स्थान तथा उत्कृष्ट जन्म देता है।]

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    विषय

    प्राणरूप परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (प्राणः मृत्युः) प्रारण ही मृत्यु अर्थात् शरीर के आत्मा से वियुक्त होने का कारण है। (प्राणः तक्मा) जीवन में ज्वर आदि होने का मूलकारण भी वही प्राण है। (देवाः) समस्त देवगण पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र आदि लोक और वाग्, चक्षु आदि इन्द्रिय गण और विद्वान् पुरुष सब (प्राणम् उपासते) प्राण की ही उपासना करते हैं। (प्राणः ह) निश्चय से सर्वप्राणेश्वर प्राण ही (सत्यवादिनम्) सत्यवादी पुरुष को (उत्तमे लोके आदधत्) उत्तम लोक में स्थापित करता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘प्राणो मृत्युः प्राणोऽमृतम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भार्गवी वैदर्भिर्ऋषिः। प्राणो देवता। १ शंकुमती, ८ पथ्यापंक्तिः, १४ निचृत्, १५ भुरिक्, २० अनुष्टुबगर्भा त्रिष्टुप, २१ मध्येज्योतिर्जगति, २२ त्रिष्टुप, २६ बृहतीगर्भा, २-७-९, १३-१६-१९-२३-२५ अनुष्टुभः। षडविंशचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (प्राण:-मृत्यु:) प्राण अजीवनीय तत्त्वों को मारने वाला है, (प्राण:-तक्मा) प्राण ही निराशाओं को तंग करने वाला-भगाने वाला है, (प्राणं देवाः-उपासते ) प्राण की देव-भौतिक इन्द्रियाँ उपासना करती हैं (प्राणः सत्यवादिनम्-उत्तमे लोके-दधत्) सत्यवादी संयमी सदाचारी कों प्राण उत्तम लोक-मोक्ष में स्थापित करता है ॥११॥

    विशेष

    ऋषिः — भार्गवो वैदर्भिः ("भृगुभृज्यमानो न देहे"[निरु० ३।१७])— तेजस्वी आचार्य का शिष्य वैदर्भि-विविध जल और औषधियां" यद् दर्भा आपश्च ह्येता ओषधयश्च” (शत० ७।२।३।२) "प्रारणा व आप:" [तै० ३।२।५।२] तद्वेत्ता- उनका जानने वाला । देवता- (प्राण समष्टि व्यष्टि प्राण) इस सूक्त में जड जङ्गम के अन्दर गति और जीवन की शक्ति देनेवाला समष्टिप्राण और व्यष्टिप्राण का वर्णन है जैसे व्यष्टिप्राण के द्वारा व्यष्टि का कार्य होता है ऐसे समष्टिप्राण के द्वारा समष्टि का कार्य होता है । सो यहां दोनों का वर्णन एक ही नाम और रूप से है-

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prana Sukta

    Meaning

    Prana is death, Prana is fever, senses honoured adore Prana. And Prana leads the man of truth of word and deed to the highest region of bliss and establishes him there. (Chhandogyopanishad, 5, 1, 14-15).

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    Translation

    Breath (is) death, breath takman; breath the gods worship (upa-ds); breath may set the truth-speaker: in the highest world.

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    Translation

    Prana is death, Prana is fever and all the organic limbs and creaturee have their contact with Prana. This Prana Places in the good and lofty state of health the man who establishes the truth, the working of Prana in him intact.

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    Translation

    God causes death when we disobey His laws. He is the source of life. God is worshipped by the sages. God sets in the loftiest sphere the man who speaks the words of truth.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(प्राणः) जीवनप्रदः परमेश्वरः (मृत्युः) मरणस्य कर्त्ता (तक्मा) अ० १।२५।१। कृच्छ्रजीवनकरो ज्वरादिरोगः (देवाः) विद्वांसः (उपासते) सेवन्ते (ह) एव (सत्यवादिनम्) यथार्थवक्तारम् (उत्तमे) उत्कृष्टे (लोके) दर्शनीये स्थाने (आ दधत्) लेटि रूपम्। स्थापयेत् ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    প্রাণো মৃত্যুঃ প্রাণস্তক্মা প্রাণং দেবা উপাসতে ।

    প্রাণো হ সত্যবাদিনমুত্তমে লোক আ দধৎ।।১২।।

    (অথর্ব ১১।৪।১১)

    পদার্থঃ (প্রাণো মৃত্যুঃ) প্রাণই মৃত্যু।  (প্রাণঃ তক্মা) প্রাণই জীবনে কষ্টদানকারী রোগবিশেষ। (প্রাণং দেবা উপাসতে) বিদ্বানগণ সকলের জীবনের কারণ ঈশ্বরের উপাসনা করে।(প্রাণঃ হ) প্রাণই নিশ্চিতরূপে (সত্যবাদিনম্) সত্যবাদী মনুষ্যকে (উত্তমে লোকে) উত্তম শরীরে বা শ্রেষ্ঠ স্থানে (আ দধৎ) স্থাপিত করে ৷

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ বেদান্ত শাস্ত্র নির্মাতা ব্যাস মহারাজ লিখেছেন, ‘অতএব প্রাণঃ’। জগতের উৎপত্তি, স্থিতি, প্রলয়াদি কর্তা হওয়ায় প্রাণ শব্দের অর্থ পরমাত্মা জানা উচিত, প্রাণবায়ু নয়।  এজন্য সব চেষ্টার কারণ হওয়ায় পরমাত্মার নাম প্রাণ। এই পরমেশ্বরই আমাদের জন্ম মৃত্যুর আর সাংসারিক নানাবিধ সুখ-দুঃখের দাতা।  প্রাণরূপ পরমেশ্বরই সত্যবাদী, সত্যকর্তা, সত্যমানী, সত্যের প্রচারকারী ব্যক্তিকে উত্তম লোক প্রাপ্ত করান ( লোক শব্দের অর্থ উত্তম শরীর, উত্তম জ্ঞান আর উত্তম স্থান )। একথা নিশ্চিত যে, পরমাত্মা এমন ব্যক্তিকে উত্তম লোকাদি প্রাপ্ত করান।। ১২।।

     

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