अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 15
ऋषिः - आत्मा
देवता - भुरिक् अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
34
प्रति॑ तिष्ठवि॒राड॑सि॒ विष्णु॑रिवे॒ह स॑रस्वति। सिनी॑वालि॒ प्र जा॑यतां॒ भग॑स्यसुम॒ताव॑सत् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । ति॒ष्ठ॒ । वि॒ऽराट् । अ॒सि॒ । विष्णु॑ऽइव । इ॒ह । स॒र॒स्व॒ति॒ । सिनी॑वालि । प्र । जा॒य॒ता॒म् । भग॑स्य । सु॒ऽम॒तौ । अ॒स॒त् ॥१.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति तिष्ठविराडसि विष्णुरिवेह सरस्वति। सिनीवालि प्र जायतां भगस्यसुमतावसत् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । तिष्ठ । विऽराट् । असि । विष्णुऽइव । इह । सरस्वति । सिनीवालि । प्र । जायताम् । भगस्य । सुऽमतौ । असत् ॥१.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(सरस्वति) हे सरस्वती ! [श्रेष्ठ विज्ञानवाली] (प्रति तिष्ठ) दृढ़ रह, (विष्णुः इव) व्यापक सूर्य केसमान तू (इह) यहाँ पर [गृहाश्रम में] (विराट्) विविध प्रकार ऐश्वर्यवाली (असि)है। (सिनीवालि) हे अन्नवाली पत्नी ! [तुझसे] (प्रजायताम्) उत्तम सन्तान उत्पन्नहोवे और वह [सन्तान] (भगस्य) भगवान् [ऐश्वर्यवान् परमात्मा] की (सुमतौ) सुमतिमें (असत्) रहे ॥१५॥
भावार्थ
गर्भवती स्त्रीविज्ञानपूर्वक समर्थ होकर वेदादि शास्त्रों के स्वाध्याय और बड़े-बड़े पुरुषोंके चरित्रों के विचार से श्रेष्ठ धर्मात्मा ईश्वरभक्त सन्तान उत्पन्न करे॥१५॥
टिप्पणी
१५−(प्रति तिष्ठ) दृढं वर्तस्व (विराट्) विविधैश्वर्यवती (असि) (विष्णुः)व्यापकः सूर्यः (इव) यथा (इह) अस्मिन् गृहाश्रमे (सरस्वति) हे श्रेष्ठविज्ञानवति (सिनीवालि) अ० २।२६।२। षिञ् बन्धने-नक्, ङीप्+बल संवरणे, यद्वा बल जीवने-दानेच-अण्, ङीप्। सिनीवाली सिनमन्नं भवति सिनाति भूतानि बालं पर्ववृणोतेस्तस्मिन्नन्नवती-निरु० ११।३१। हे अन्नवति पत्नि (प्र जायताम्)उत्तमसन्तान उत्पद्यताम् (भगस्य) ऐश्वर्यवतः परमेश्वरस्य (सुमतौ) धार्मिकबुद्धौ (असत्) भवेत् ॥
विषय
सरस्वती सिनीवाली
पदार्थ
१. हे (सरस्वति) = ज्ञानजल को धारण करनेवाली गृहपत्नि! तू (इह प्रतितिष्ठ) = इस गृह में प्रतिष्ठित हो, तू सबसे मान प्राप्त कर । (विराट् असि) = तू विशिष्ट ही दीतिबाली है-तेरी शोभा निराली है। तु (विष्णः इव) = देदीप्यमान सूर्य की भाँति है [आदित्यानामहं विष्णुः]। २. हे सिनीवालि प्रशस्त अन्नोंवाली-सदा सात्त्विक अन्नों का सेवन करनेवाली गृहपनि! तेरी सुव्यवस्था से यह गृहपति (प्रजायताम्) = सन्तान के रूप में जन्म लेनेवाला हो [तद्धि जायाया जायात्वं यदस्यां जायते पुनः।] इसका पति (भगस्य) = ऐश्वर्यशाली भजनीय प्रभु की (सुमतौ असत्) = कल्याणी मति में सदा निवास करे। प्रभु-प्रेरणा को प्रास करता हुआ, सुपथ से धर्नाजन करनेवाला हो।
भावार्थ
घर में गृहपत्नी का समुचित मान हो। वह घर में सूर्य की भाँति दीस हो। प्रशस्त अत्रों का सेवन करनेवाली हो, उत्तम सन्तान को जन्म दे। इसका गृहपति भी प्रभु-प्रेरणा को सुनता हुआ सुपथ से धर्नाजन करनेवाला हो।
भाषार्थ
हे पत्नी । (प्रतितिष्ठ) तू प्रतिष्ठा को प्राप्त हो कर नवगृह में दृढ़ता से स्थित हो। (विराट्) तू विराट्-रूपा है। (सरस्वति) हे ज्ञान-विज्ञान वाली देवी ! (इह) इस गृह में तू (विष्णुः इव) सूर्य के सदृश प्रकाश देने वाली है। (सिनीवालि) हे अन्न स्वामिनी ! तथा सुन्दर वालों वाली ! (प्रजायताम्) तुझ से सन्तान पैदा हो, जोकि (भगस्य) भगों से सम्पन्न पिता की (सुमतौ) सुमति में (असत्) रहे।
टिप्पणी
[विराट् = विशेषेण राजते इति, राजॄ दीप्तौ। विष्णुः = किरणों से व्याप्त सूर्य, विष्लृ व्याप्तौ। सरस्वती= सरः विज्ञानं विद्यतेऽस्यां सा (उणा० ४।१९०, महर्षि दयानन्द)। सिनीवाली= सिनम् = अन्नम्, तद्वती सिनी; वालः केशसमूहः तद्वती वाली। सिनम् अन्नाम (निघं० २।७)। भगस्य, भग- ऐश्वर्य, धर्म, यशः, श्री, ज्ञान, वैराग्य, तत्सम्पन्न पिता, अर्श आद्यच् (अष्टा० ४।२।१२७)]। [व्याख्या- मन्त्र में वधू को विष्णु और सरस्वती कह कर इसे देवतारूप माना है। यह पतिगृह की देवता बनी है। इसलिये यह प्रतिष्ठा की पात्र है। मानो गृह मन्दिर में पत्नी का प्रतिष्ठान हुआ है। वधू को विराट् कहा है। विराट् से जगत् उत्पन्न हुआ है। यथा 'ततोविराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः । स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥" (यजु० ३१।५), में विराट्१ को प्रकृतिरूप तथा परमपुरुष परमेश्वर को उस का अधीश्वर मान कर भूमि आदि की उत्पत्ति दर्शाई है। गृहस्थ में भी, वधू को विराट् कहते हुए, पति को गृहस्थ में अधीश्वर सूचित किया है। जैसे प्रकृति और परमपुरुष का सम्बन्ध केवल जगत् के उत्पादन के निमित्त होता है, भोगेच्छा की तृप्ति के लिये नहीं इसी प्रकार का सम्बन्ध पत्नी और पति का होना चाहिये यह भावना "विराट्" पक्ष द्वारा दर्शाई है। वधू को सरस्वती कहा है। सरस्वती विद्या की अधिष्ठात्री देवता है। सूर्या ब्रह्मचारिणी भी गुरुकुल में गुरुओं द्वारा सुशिक्षिता होकर मानो सरस्वती का रूप है। माता के सुशिक्षिता होने पर वह बच्चों की सच्ची Guardian (सुरक्षिका) हो सकती है। वधू विष्णु है। विष्णु परमदेव है जगत् का। इसी प्रकार वधू गृहस्थ जगत् की परमदेवता रूप है। विष्णु का अर्थ सूर्य भी है जो कि निज किरणों द्वारा निज सौरमण्डल में व्याप्त होकर उसे प्रकाशित कर धारित कर रहा है। इसी प्रकार पत्नी को भी चाहिये कि वह निज ज्ञान-विज्ञान द्वारा गृहस्थ में ज्ञान ज्योति का विस्तार कर गृहस्थ का धारण-पोषण करे। वधू "सिनीवाली" है। वह सिनी है, घर के खाद्य-पेय सामग्री की स्वामिनी बन कर गृहवासियों का अन्नादि द्वारा पालन-पोषण करने वाली वह बने, तथा "वाली" अर्थात् केश आदि को संवार कर निजी शोभा बनाए रखे। सिनीवाली को निरुक्तकार ने "देवपत्नी" कहा है "सिनीवाली कुहूरिति देवपत्न्यौ-इति नैरुक्ताः” (११।३।३१)। अर्थात् सिनीवाली, देवरूप पति की पत्नी है, आसुर तथा तामस प्रकृति वाले पुरुष की नहीं। इस के द्वारा यह सूचित किया है कि गुणकर्म और स्वभाव में स्वसदृश स्त्री पुरुष का विवाह ही योग्य विवाह है। पत्नी का यह भी कर्तव्य है कि वह बच्चों को इस प्रकार सुशिक्षित करे कि वे अपने पिता की सुमति में सदा रहें, ताकि वे दुर्मति-मार्ग पर न चलें।] [१. विराट्-तत्व देदीप्यमान तत्व है, जो कि आकाश में महाव्याप्ति में फैला हुआ था, जोकि केवल विकृतिरूप था, और जिस से स्थूल सृष्टि अर्थात् सूर्य, चन्द्र, तारा, नक्षत्र, भूमि आदि तथा प्राणियों के शरीर (पुरः), परम्परा उत्पन्न हुए। विराट् अवस्था पञ्चतन्मात्राओं से, पञ्च तन्मात्राएं अहंकार से और अहङ्कार महत्तत्व से, तथा महत्तत्व मूलप्रकृति से उत्पन्न हुआ। प्रथमप्रकृति मूल-प्रकृति है, महत्तत्त्व से लेकर पञ्चतन्मात्राओं तक प्रकृति-विकृति रूप तथा "विराट्" केवल विकृतिरूप है।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
हे (सरस्वति) सरस्वति ! स्त्री ! तू (प्रति तिष्ठ) प्रतिष्ठा को प्राप्त हो। तू (विराड् असि) साक्षात् विराट् विशेष रूप से शोभा देने वाली द्यौलोक या पृथिवी के समान है। और हे पुरुष ! (इह) इस स्त्री के प्रति तू भी (विष्णुः इव) विष्णु, व्यापक सूर्य के समान है। है (सिनीवालि) सिनीवालि, स्त्री ! (प्रजायताम्) सुख से तेरी सन्तान उत्पन्न हो और तू (भगस्य) ऐश्वर्यवान् पति के (सुमतौ) शुभ मति या आज्ञा में (सत्) रह।
टिप्पणी
योषा वै सिनीवाली। श० ६। ५। १। १० ॥ योषा वै सरस्वती वृषा पूषा। श० २। ५। १। ११ ॥ ‘प्रजायताम्’ ‘असत्’ इति वचनव्यत्ययः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
O Bride, lady of intelligence, Sarasvati, O lady of grace, Sinivali, noble, brilliant and queen-like you are, settle secure here in the home, let your presence pervade in the home like Vishnu’s in the universe. Give birth to the baby and may the baby be in the good will of Bhaga, lord of life’s excellence and glory.
Translation
Stay here respected. You are greatly shining like the Omnipresent Lord. O divine mid wife, (Sinivali), may she give birth to children, may she favoured by the Lord of good fortune (enjoy the marital bliss).
Translation
O well-educated bride, you are like the luminous tenacious like Bishnu, the all pervading cosmo psychic state of cosmic dust, you stay here. The husband of your is force, O Sinivali, you bear off-spring and remain always concordant with the mind of your husband, the symbol of all prosperities.
Translation
O learned women, remain firm like the Sun, here in domestic life, thou art the queen of the house. O lady, the master of provisions bear good off¬ springs, obedient to the command of God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(प्रति तिष्ठ) दृढं वर्तस्व (विराट्) विविधैश्वर्यवती (असि) (विष्णुः)व्यापकः सूर्यः (इव) यथा (इह) अस्मिन् गृहाश्रमे (सरस्वति) हे श्रेष्ठविज्ञानवति (सिनीवालि) अ० २।२६।२। षिञ् बन्धने-नक्, ङीप्+बल संवरणे, यद्वा बल जीवने-दानेच-अण्, ङीप्। सिनीवाली सिनमन्नं भवति सिनाति भूतानि बालं पर्ववृणोतेस्तस्मिन्नन्नवती-निरु० ११।३१। हे अन्नवति पत्नि (प्र जायताम्)उत्तमसन्तान उत्पद्यताम् (भगस्य) ऐश्वर्यवतः परमेश्वरस्य (सुमतौ) धार्मिकबुद्धौ (असत्) भवेत् ॥
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