अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 51
ऋषिः - आत्मा
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
18
ये अन्ता॒याव॑तीः॒ सिचो॒ य ओत॑वो॒ ये च॒ तन्त॑वः। वासो॒ यत्पत्नी॑भिरु॒तं तन्नः॑स्यो॒नमुप॑ स्पृशात् ॥
स्वर सहित पद पाठये । अन्ता॑: । याव॑ती: । सिच॑: । ये । ओत॑व: । ये । च॒ । तन्त॑व: । वास॑: । यत् । पत्नी॑भि: । उ॒तम् । तत् । न॒: । स्यो॒नम् । उप॑ । स्पृ॒शा॒त् ॥२.५१॥
स्वर रहित मन्त्र
ये अन्तायावतीः सिचो य ओतवो ये च तन्तवः। वासो यत्पत्नीभिरुतं तन्नःस्योनमुप स्पृशात् ॥
स्वर रहित पद पाठये । अन्ता: । यावती: । सिच: । ये । ओतव: । ये । च । तन्तव: । वास: । यत् । पत्नीभि: । उतम् । तत् । न: । स्योनम् । उप । स्पृशात् ॥२.५१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहआश्रम का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो (अन्ताः)वस्त्र के आँचल, (यावतीः) जितनी (सिचः) कोरें, (ये) जो (ओतवः) बुनावटें, (च) और (ये) जो (तन्तवः) तन्तु [ताँते] हैं। (यत्) जो (वासः) वस्त्र (पत्नीभिः)पत्नियों करके (उतम्) बुना गया है, (तत्) वह (नः) हम से (स्योनम्) सुख के साथ (उप स्पृशात्) चिपटा रहे ॥५१॥
भावार्थ
जैसे विदुषी चतुरस्त्रियों के बुने और बनाये वस्त्र शरीर को सुख देते हैं, वैसे ही विद्वानों केविचारपूर्वक किये काम उपकारी होते हैं ॥५१॥
टिप्पणी
५१−(ये) (अन्ताः) वस्त्रान्ताः (यावतीः) यत्संख्याकाः (सिचः) षिच आर्द्रीकरणे-क्विप्। वस्त्रान्तविशेषाः (ये) (ओतवः) सितनिगमिमसिसच्यवि०। उ० १।६९। अव रक्षणादिषु-तुन्, ऊठ्च, यद्वा आङ्+वेञ्तन्तुसन्ताने-तुन् सम्प्रसारणं च। पटे दीर्घतन्तवः (ये) (च) (तन्तवः) तनुविस्तारे-तुन्। सूत्राणि (वासः) वस्त्रम् (यत्) (पत्नीभिः) (उतम्) वेञ् तन्तुसन्ताने-क्त। स्यूतम् (तत्) (नः) अस्मान् (स्योनम्) सुखेन (उप) उपेत्य (स्पृशात्) स्पशेत् ॥
विषय
गृह में ही वस्त्र निर्माण
पदार्थ
१. (ये अन्त:) = जो वस्त्रों की झालरें हैं, (यावती: सिच:) = जितनी किनारियौं हैं, (ये ओतव:) = जो उनके बाने हैं (च) = और (ये तन्तव:) = जो ताने के सूत्र हैं, इस प्रकार (यत् वास:) = जो वस्त्र (पत्नीभिः उतम्) = गृहदेवियों ने ही बुना है, (तत्) = वह (स्योनम्) = सुखकर वस्त्र ही (न: उपस्पृशात्) = हमारे शरीर को छूए। २. स्त्रियों का अतिरिक्त समय वस्त्र-निर्माण में व्यतीत होकर उन्हें भोगविलास की बृत्ति से ऊपर उठनेवाला बनाए। इसप्रकार प्रत्येक युवति देश के ऐश्वर्य की वृद्धि में भी कुछ न-कुछ सहायक हो रही होगी और समय को भी उत्तमता से व्यतीत कर पाएगी। वस्तुत: इन वस्त्रों के एक-एक तार में प्रेम भी ग्रथित हुआ-हुआ होता है। उस वस्त्र को धारण करके प्रेम की पवित्र भावना में भी वृद्धि होती है। यान्त्रिक वस्त्र 'मृत'-सा होता है तो यह 'जीवित' होता है। यान्त्रिक वस्त्रों में केवल 'सौन्दर्य' है तो गृह के वस्त्र में प्रेममय सौन्दर्य है।
भावार्थ
गृहिणियाँ अपने अतिरिक्त समय का घर के वस्त्रों के निर्माण में सदुपयोग करें। इसप्रकार वे ऐश्वर्य-वृद्धि में व विलासवृत्ति-विनाश में सहायक बनेगी।
भाषार्थ
वस्त्र के (ये) जो (अन्ताः) अन्त के भाग हैं, किनारे हैं, (यावतीः) और जितनी (सिचः) कोरें हैं. (ये) जो (ओतवः) बानें (च) और (ये) जो (तन्तवः) तानें तय्यार किये हैं, (यत्) जो (पत्नीभिः) पत्नियों ने (वासः) उन से वस्त्र (उतम्) बुना है, (तत्) वह वस्त्र (नः) हमें (स्योनम्) सुखदायी हो, (उप स्पृशात्) और हमारे शरीरों का स्पर्श करे।
टिप्पणी
[व्याख्या–मन्त्रानुसार वस्त्रनिर्माण पत्नियों का गृह्य-शिल्प है। वस्त्र ऐसा होना चाहिये जो कि गरमी-सरदी की दृष्टि से सुखदायक हो। गृह्यशिल्प द्वारा निर्मित वस्त्र ही हमारे शरीरों का स्पर्श करें, अर्थात् ऐसे वस्त्र ही हमें पहिरने चाहिये।]
विषय
पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।
भावार्थ
(ये अन्ताः) जो वस्त्र की जो झालरें हैं, (यावतीः सिचः) और जितनी किनारियां हैं (ये ओतवः) जो बाने और (ये च तन्तवः) जो ताने के सूत हैं (यत् वासः) और जो वस्त्र (पत्नीभिः) गृहदेवियों ने (उतम्) बुना है (तत्) वह (वः) हमें (स्योनं) सुखपूर्वक (उपस्पृशात्) शरीर को छुए। यहां ‘वासो यत् पत्नीभृतम्’ यह पैप्पलादपाठ सुसंगतः है। कपड़ा जो पत्नी ने धारण किया है।
टिप्पणी
‘वासो यत् पत्नीभृतं तन्त्वा तस्योनमुपस्पृशः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Surya’s Wedding
Meaning
All the ends, the hems and comers, the warp and woof of the cloth woven by the women of the home should be beautiful and soft in feel and comfortable in touch for the body.
Translation
What ends (of threads), what borders, what woofs and what wraps are there; what cloths is woven by the wives, may that be of pleasant touch to us.
Translation
Let all those which are the hems and borders, the threads of warp and weft and cloth woven by the bride be soft and pleasant to our touch.
Translation
May all the hems and borders, all the threads that form the web and woof, the garment woven by the ladies, be soft and pleasant to our touch.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५१−(ये) (अन्ताः) वस्त्रान्ताः (यावतीः) यत्संख्याकाः (सिचः) षिच आर्द्रीकरणे-क्विप्। वस्त्रान्तविशेषाः (ये) (ओतवः) सितनिगमिमसिसच्यवि०। उ० १।६९। अव रक्षणादिषु-तुन्, ऊठ्च, यद्वा आङ्+वेञ्तन्तुसन्ताने-तुन् सम्प्रसारणं च। पटे दीर्घतन्तवः (ये) (च) (तन्तवः) तनुविस्तारे-तुन्। सूत्राणि (वासः) वस्त्रम् (यत्) (पत्नीभिः) (उतम्) वेञ् तन्तुसन्ताने-क्त। स्यूतम् (तत्) (नः) अस्मान् (स्योनम्) सुखेन (उप) उपेत्य (स्पृशात्) स्पशेत् ॥
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