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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 23
    ऋषिः - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    23

    उप॑ स्तृणीहि॒बल्ब॑ज॒मधि॒ चर्म॑णि॒ रोहि॑ते। तत्रो॑प॒विश्य॑ सुप्र॒जा इ॒मम॒ग्निं स॑पर्यतु॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । स्तृ॒णी॒हि॒ । बल्ब॑जम् । अधि॑ । चर्म॑णि । रोहि॑ते । तत्र॑ । उ॒प॒ऽविश्य॑ । सु॒ऽप्र॒जा: । इ॒मम् । अ॒ग्निम् । स॒प॒र्य॒तु ॥२.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप स्तृणीहिबल्बजमधि चर्मणि रोहिते। तत्रोपविश्य सुप्रजा इममग्निं सपर्यतु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । स्तृणीहि । बल्बजम् । अधि । चर्मणि । रोहिते । तत्र । उपऽविश्य । सुऽप्रजा: । इमम् । अग्निम् । सपर्यतु ॥२.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 23
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    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    (रोहिते) रोहित [हरिणविशेष] के (चर्मणि अधि) चर्म पर (बल्बजम्) बल्बज [तृणविशेष का आसन] (उपस्तृणीहि) तू फैला। (तत्र) उस पर (सुप्रजाः) सुन्दर जन्मवाली वधू (उपविश्य)बैठकर (इमम्) इस (अग्निम्) अग्नि [व्यापक परमेश्वर वा भौतिक अग्नि] की (सपर्यतु)सेवा करे ॥२३॥

    भावार्थ

    विद्वानों के दिये आसनपर बैठकर कुलवधू परमेश्वर की उपासना और यज्ञ आदि में अग्नि का प्रयोग करे॥२३॥

    टिप्पणी

    २३−(उप स्तृणीहि) आच्छादय (बल्बजम्) म० २२। तृणविशेषासनम् (अधि) उपरि (चर्मणि) म० २२। (रोहिते) रोहित-अर्शआद्यच्। मृगविशेषसम्बन्धिनि।गोकर्णपृषतैणर्श्यरोहिताश्चमरो मृगाः। अमर० १५।१०। (तत्र) आसने (उपविश्य) (सुप्रजाः) सुजन्मा वधू (इमम्) प्रसिद्धम् (अग्निम्) व्यापकं परमेश्वरंभौतिकाग्निं वा (सपर्यतु) परिचरतु ॥

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    विषय

    'मृगचर्म पर तृणासन बिछा' उसपर बैठकर अग्निहोत्र करना

    पदार्थ

    १. (चर्म च उपस्तृणीथन) = जो तुम मृगचर्म बिछाते हो और उसपर (यम्) = जिस (बल्बजम्) = तणासन को (न्यस्यथ) = स्थापित करते हो, (तत्) = उस आसन पर (सुप्रजा:) = यह उत्तम प्रजा को जन्म देनेवाली (कन्या) = कन्या (या पतिं विन्दते) = जो अभी-अभी पति को प्राप्त करती है, (आरोहतु) = आरोहण करे। इस आसन पर वह उपविष्ट हो। २. हे पुरुष! तु (रोहिते चर्मणि अधि) = रोहित मृग के चर्म [मृगचर्म] पर (बल्बजम् उपस्तृणीहि) = इस तृणासन को बिछा दे। (तत्र) = उस आसन पर उपविश्य बैठकर (सुप्रजा:) = उत्तम प्रजा को जन्म देनेवाली यह कन्या (इमम् अग्रिं सर्पयतु) इस अग्नि का पूजन करे। घर में अग्निहोत्र करना आवश्यक है। यह घर के रोगकृमियों को नष्ट करके स्वास्थ्य का साधक होता है।

    भावार्थ

    गृहपत्नी मृगचर्म पर तृणासन बिछाकर, उसपर बैठे। वहाँ स्थिरतापूर्वक सुख से बैठकर प्रतिदिन अग्रिहोत्र अवश्य करे। यह अग्निहोत्र घर की नीरोगता का साधक है।

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    भाषार्थ

    (बल्बजम्) बल्वज घास को (उपस्तृणीहि) भूमि पर बिछा, (तत्र) उस पर (अधि रोहिते चर्मणि) अध्यारूढ़ किये चर्म पर (सुप्रजाः) उत्तम सन्तान को जन्म देने वाली पत्नी (उपविश्य) बैठकर, (इमम्) इस (अग्निम्) अग्नि की (सपर्यतु) सेवा करे, अर्थात् इस अग्नि में अग्निहोत्र करे या उस में प्रसूतिकाल में दी जाने वाली आहुतियां दे।

    टिप्पणी

    [अदि रोहिते=अधि + रोह+इतच् (तारकादित्वात् अष्टा०)। कई मन्त्र का अर्थ करते हैं कि "लाल चर्म पर बल्वज-घास को बिछा कर, उस पर बैठ कर, पत्नी अग्नि की सेवा करे"। यह अर्थ मन्त्र २२ के अर्थ के विपरीत है, तथा मन्त्र २४ में भी चर्म पर ही आरोहण का विधान है बल्वज पर नहीं। चरक में भी चर्म पर ही बैठ कर इष्टि का विधान किया है। यथा "तां पश्चिमेनाहतवस्त्रसञ्चये श्वेतार्षभे वाऽप्यजिन उपविशेद् ब्राह्मणप्रयुक्तः, राजन्यप्रयुक्तस्तु वैयाघ्रे चर्मण्यानडुहे वा, वैश्यप्रयुक्तस्तु रौरवे बास्ते वा| तत्रोपविष्टः पालाशीभिरैङ्गुदीभिरौदुम्बरीभिर्माधूकीभिर्वा समिद्भिरग्निमुपसमाधाय.......काम्यामिष्टिं निर्वर्तयेद्"।।(चरक, शारीरस्थान, अध्याय ८, सूत्र १०-११) अर्थात् उस वेदि के पश्चिम में एक नया वस्त्र बिछा कर उस पर सुफेद बैल या मृग का चर्म विछा कर बैठे। यह विधि ब्राह्मण के घर की है। क्षत्रिय के घर में व्याघ्र या बैल का चर्म बिछाएं। वैद्य के घर में रुरु-मृग या बकरे का चर्म बिछाए। वहां बैठ कर ढाक, गोंदी, गूलर या माधुकी को समिधाओं में अग्निस्थापन कर काम्येष्टि का सम्पादन करे। इस उद्धरण में भी चर्म पर बैठने का विधान है, आवृत चर्म१ पर नहीं। उपस्तृणीहि तथा उपस्तरे (१४।२।२१) समानाभिप्राय है][ अथवा मन्त्रार्थ निम्नलिखित हैं:- "बल्वज घास को भूमि पर विछा, (तत्र) उस पर [बिछाएं] [रोहिते चर्मणि अधि] लाल या रोहित नाम वाले मृग पर (उपविश्य) बैठ कर,–शेष पूर्ववत।]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! तू प्रथम (बल्बजम्) नर्म घास के आसन को (रोहिते चर्मणि अधि) रोहित नाम मृग के लाल चर्म पर (उपस्तृणीहि) बिछा दे (तत्र) उस पर (सुप्रजा) उत्तम सन्तान से युक्त पत्नी बैठकर (इयम् अग्निम्) इस गार्हपत्य अग्नि और परमेश्वर की (सपर्यतु) उपासना और अग्निहोत्र करे।

    टिप्पणी

    (च०) ‘सपर्यत’ इति क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    Cover the grass mattress with red deer skin and let the woman expecting good progeny sit thereon and serve this holy fire of the home.

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    Translation

    Cast the coarse grass in a heap. On the hide spread over it, sitting there, let this bearer of good progeny tend to this fire.

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    Translation

    O man! Let you spread mat, thereafter on the red skin of deer, bride blessed with progeny enkindle this fire to perform Yajna.

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    Translation

    Over the ruddy-colored skin strew thou the grass seat. Let her, the mother of good sons, sit there, perform Havan and pray to God.

    Footnote

    Thou: The husband.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २३−(उप स्तृणीहि) आच्छादय (बल्बजम्) म० २२। तृणविशेषासनम् (अधि) उपरि (चर्मणि) म० २२। (रोहिते) रोहित-अर्शआद्यच्। मृगविशेषसम्बन्धिनि।गोकर्णपृषतैणर्श्यरोहिताश्चमरो मृगाः। अमर० १५।१०। (तत्र) आसने (उपविश्य) (सुप्रजाः) सुजन्मा वधू (इमम्) प्रसिद्धम् (अग्निम्) व्यापकं परमेश्वरंभौतिकाग्निं वा (सपर्यतु) परिचरतु ॥

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