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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 22
    ऋषिः - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
    36

    यं बल्ब॑जं॒न्यस्य॑थ॒ चर्म॑ चोपस्तृणी॒थन॑। तदा रो॑हतु सुप्र॒जा या क॒न्या वि॒न्दते॒पति॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । बल्ब॑जम् । नि॒ऽअस्य॑थ । चर्म॑ । च॒ । उ॒प॒ऽस्तृ॒णी॒थन॑ । तत् । आ । रो॒ह॒तु॒ । सु॒ऽप्र॒जा: । या । क॒न्या᳡ । वि॒न्दते॑ । पति॑म् ॥२.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं बल्बजंन्यस्यथ चर्म चोपस्तृणीथन। तदा रोहतु सुप्रजा या कन्या विन्दतेपतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । बल्बजम् । निऽअस्यथ । चर्म । च । उपऽस्तृणीथन । तत् । आ । रोहतु । सुऽप्रजा: । या । कन्या । विन्दते । पतिम् ॥२.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 2; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहआश्रम का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वानो !] (यम्)जिस (बल्बजम्) बल्बज [तृणविशेष के आसन] को (न्यस्यथ) तुम बिछाते हो (च) और (चर्म) [मृग सिंह आदि का चर्म, उस पर] (उपस्तृणीथन) तुम फैलाते हो। (सुप्रजाः)सुन्दर जन्मवाली (कन्या) वह कन्या [कमनीया वधू] (तत्) उस पर (आ रोहतु) ऊँचीबैठे, (या) जो (पतिम्) पति को (विन्दते) पाती है ॥२२॥

    भावार्थ

    घर के विद्वान् लोगयोग्य आसन आदि से पतिव्रता कुलवधू का आदर-सत्कार करते रहें ॥२२॥(बल्बज) एक तृणविशेष मूँज वा कुश का भेद है, जिससे मूँज न मिलने पर मेखला बनाने को मनु० २।४३। मेंलिखा है ॥

    टिप्पणी

    २२−(यम्) (बल्बजम्) अशूप्रुषिलटि–०। उ० १।१५१। बल संवरणेवेष्टने-क्वन्+जन-ड। बलते भुवं वेष्टयतीति बल्बः पर्वतस्तत्र जायते।तृणविशेषासनम्। मुञ्जभेदम्-यथा मनु० २।४३। (न्यस्यथ) निक्षिपथ (चर्म)सिंहमृगादिचर्म (च) (उपस्तृणीथन) आच्छादयथ (तत्) आसनम् (आ रोहतु) आतिष्ठतु (सुप्रजाः) जनी प्रादुर्भावे-विट्। सुजन्मा (या) (कन्या) कमनीया वधू (विन्दते)लभते (पतिम्) भर्तारम् ॥

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    विषय

    'मृगचर्म पर तृणासन बिछा' उसपर बैठकर अग्निहोत्र करना

    पदार्थ

    १. (चर्म च उपस्तृणीथन) = जो तुम मृगचर्म बिछाते हो और उसपर (यम्) = जिस (बल्बजम्) = तणासन को (न्यस्यथ) = स्थापित करते हो, (तत्) = उस आसन पर (सुप्रजा:) = यह उत्तम प्रजा को जन्म देनेवाली (कन्या) = कन्या (या पतिं विन्दते) = जो अभी-अभी पति को प्राप्त करती है, (आरोहतु) = आरोहण करे। इस आसन पर वह उपविष्ट हो। २. हे पुरुष! तु (रोहिते चर्मणि अधि) = रोहित मृग के चर्म [मृगचर्म] पर (बल्बजम् उपस्तृणीहि) = इस तृणासन को बिछा दे। (तत्र) = उस आसन पर उपविश्य बैठकर (सुप्रजा:) = उत्तम प्रजा को जन्म देनेवाली यह कन्या (इमम् अग्रिं सर्पयतु) इस अग्नि का पूजन करे। घर में अग्निहोत्र करना आवश्यक है। यह घर के रोगकृमियों को नष्ट करके स्वास्थ्य का साधक होता है।

    भावार्थ

    गृहपत्नी मृगचर्म पर तृणासन बिछाकर, उसपर बैठे। वहाँ स्थिरतापूर्वक सुख से बैठकर प्रतिदिन अग्रिहोत्र अवश्य करे। यह अग्निहोत्र घर की नीरोगता का साधक है।

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    भाषार्थ

    (यम) जिस (बल्बजम्) बल्बज-घास को (न्यस्यथ) तुम नीचे भूमि पर बिछाते हो (चर्म च) और मृगादि के चर्म को (उपस्तृणीथन) उस बल्बज पर बिछाते हो (तत्) उस पर (सुप्रजाः) उत्तम-प्रजा उत्पन्न करने वाली पत्नी (आ रोहतु) आरूढ़ हो, (या) जो (कन्या) कमनीया पत्नी (पतिम्) पति को (विन्दते) प्राप्त करती है।

    टिप्पणी

    [बल्बजम्= Eleusine indiea। चरक में प्रसूतिगृह में बल्बज के बिछाने का विधान है (चरक, शरीरस्थान, अध्याय ८)। प्रसवपीड़ा के समय, चरक में, भूमि पर शयन का विधान है। यथा 'आवी प्रादुर्भावे तु भूमौ शयनं विधध्यात्, मृद्वास्तरणोपय नम्। आवी=प्रसववेदना (शरीर स्थान, अध्याय ८, सूत्र ७)। मृद्वास्तरण= मृदु + आस्तरण। चरक में प्रसूतिगृह का निम्नरूप में वर्णन हुआ है। 'प्राक् चैवास्या नवमान्मासात् सूतिकागारं कारयेदपहृतास्थिशर्कराकपाले देशे प्रशस्तरूपरसगन्धायां भूमौ प्राग्द्वारमुदग्द्वारं वा बैल्वानां काष्ठानां तैन्दुकैङ्गुदकानां भाल्लातकानां वार(रु)णानां खादिराणां वा; यानि चान्यान्यपि ब्राह्मणाः शंसेयुरथर्ववेदविदस्तेषां; वसनालेपनाच्छादनापिधानसम्पदुपेतं वास्तुविद्याहृदययोगाग्निसलिलोदूखलवर्चःस्थानस्नानभूमिमहानसमृतुसुखं च||३३|| (चरक शरीरस्थान, अध्याय ८, सूत्र ३३)। अर्थात् प्रसूतिगृह के लिए पहिले से ही सूतिकागृह तय्यार करवा रखना चाहिये। सुन्दर दृश्यों वाली, रसीले वृक्षों वाली, तथा फूलों के गन्धों से सुगन्धित भूमि में, सूतिकागृह बनवाना चाहिये। इस का द्वार पूर्व या उत्तर की ओर हो। अग्निहोत्र के लिए इस में बेल, तेंदु, गोंदी, भिलावा, वरणा या खैर की समिधायें होनी चाहियें तथा इस में वह सब सामान भी होना चाहिये जिसे कि अथर्ववेद के विद्वान् कहें। उपस्तृणीथन तथा उपस्तरे (अथर्व० १४।२।२१) का एक ही अभिप्राय है]

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    विषय

    पति पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    (यम्) जिस (बल्बजम्) बल्बज नामक घास को (न्यस्यथ) नीचे बिछाती है। (अथ) और उसके ऊपर (चर्म च) चर्म भी (उपस्तृणीथन) बिछा देती हो (तद्) उस पर (या कन्या) जो कन्या (पतिम्) पति को (विन्दते) वरती है वह (सुप्रजा) उत्तम प्रजा वाली होकर (आ रोहतु) चढ़े, विराजे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सावित्री सूर्या ऋषिका। सूर्यः स्वयमात्मतया देवता। [ १० यक्ष्मनाशनः, ११ दम्पत्योः परिपन्थिनाशनः ], ५, ६, १२, ३१, ३७, ३९, ४० जगत्य:, [३७, ३६ भुरिक् त्रिष्टुभौ ], ९ व्यवसाना षट्पदा विराड् अत्यष्टिः, १३, १४, १७,१९, [ ३५, ३६, ३८ ], ४१,४२, ४९, ६१, ७०, ७४, ७५ त्रिष्टुभः, १५, ५१ भुरिजौ, २० पुरस्ताद् बृहती, २३, २४, २५, ३२ पुरोबृहती, २६ त्रिपदा विराड् नामगायत्री, ३३ विराड् आस्तारपंक्ति:, ३५ पुरोबृहती त्रिष्टुप् ४३ त्रिष्टुब्गर्भा पंक्तिः, ४४ प्रस्तारपंक्तिः, ४७ पथ्याबृहती, ४८ सतः पंक्तिः, ५० उपरिष्टाद् बृहती निचृत्, ५२ विराट् परोष्णिक्, ५९, ६०, ६२ पथ्यापंक्तिः, ६८ पुरोष्णिक्, ६९ त्र्यवसाना षट्पदा, अतिशक्वरी, ७१ बृहती, १-४, ७-११, १६, २१, २२, २७-३०, ३४, ४५, ४६, ५३-५८, ६३-६७, ७२, ७३ अनुष्टुभः। पञ्चसप्तत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Surya’s Wedding

    Meaning

    The grass mattress which you spread below and the cover you spread on the mattress, let the girl who marries the husband ascend thereon who expects progeny.

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    Translation

    What coarse grass (balbaja, Eleusine indica) you cast (in a heap) and what hide you spread over it, let the maid, who finds a husband and will have good children, mount on it.

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    Translation

    O man let that lady who is blessed with good progeny and who finds husband step on the mat that you spread and on the skin you lay skin thereupon.

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    Translation

    Let her who shall be blest with sons, the maid] who finds a husband, step upon the rough grass seat (Asana) that ye spread and beneath which ye lay the deer-skin

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(यम्) (बल्बजम्) अशूप्रुषिलटि–०। उ० १।१५१। बल संवरणेवेष्टने-क्वन्+जन-ड। बलते भुवं वेष्टयतीति बल्बः पर्वतस्तत्र जायते।तृणविशेषासनम्। मुञ्जभेदम्-यथा मनु० २।४३। (न्यस्यथ) निक्षिपथ (चर्म)सिंहमृगादिचर्म (च) (उपस्तृणीथन) आच्छादयथ (तत्) आसनम् (आ रोहतु) आतिष्ठतु (सुप्रजाः) जनी प्रादुर्भावे-विट्। सुजन्मा (या) (कन्या) कमनीया वधू (विन्दते)लभते (पतिम्) भर्तारम् ॥

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