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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६
    14

    न सेशे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒ कपृ॑त्। सेदी॑शे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । स: । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रम्ब॑ते । अ॒न्त॒रा । स॒क्थ्या॑ । कपृ॑त् ॥ स: । इत् । ई॒शे॒ । यस्य॑ । रो॒म॒शम् । नि॒ऽसेदुष॑: । वि॒ऽजृम्भ॑ते । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न सेशे यस्य रम्बतेऽन्तरा सक्थ्या कपृत्। सेदीशे यस्य रोमशं निषेदुषो विजृम्भते विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । स: । ईशे । यस्य । रम्बते । अन्तरा । सक्थ्या । कपृत् ॥ स: । इत् । ईशे । यस्य । रोमशम् । निऽसेदुष: । विऽजृम्भते । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह पुरुष (न ईशे) ऐश्वर्यवान् नहीं होता है, (यस्य) जिसका (कपृत्) शिर पालनेवाला कपाल (सक्थ्या अन्तरा) दोनों जंघाओं के बीच (रम्बते) नीचे लटकता है, (सः इत्) वही पुरुष (ईशे) ऐश्वर्यवान् होता है, (यस्य निषेदुषः) जिस बैठे हुए [विचारते हुए] पुरुष का (रोमशम्) रोमवाला मस्तक [ज्ञानसामर्थ्य] (विजृम्भते) फैलता है, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥१६॥

    भावार्थ

    मनुष्य को चाहिये कि आलस्य से मस्तक झुकाकर अपने ज्ञान को संकुचित न करे, किन्तु शिर को सब ओर घुमाकर भली-भाँति विचारकर ज्ञान बढ़ाता हुआ अपना इन्द्रत्व दिखावे ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(न) निषेधे (सः) पुरुषः (ईशे) ईष्टे। ऐश्वर्यवान् भवति (यस्य) (रम्बते) लस्य रः। लम्बते। अधस्तादाश्रियते (अन्तरा) मध्ये (सक्थ्या) सक्थिनी। जङ्घे (कपृत्) क+पृ पालने-क्विप्, तुक्। कस्य शिरसः पालकः। कपालः (सः) (इत्) एव (ईशे) ईष्टे (यस्य) (रोमशम्) मत्वर्थे शप्रत्ययः। रोमयुक्तं मस्तकम् (निषेदुषः) उपविष्टस्य (विजृम्भते) विवृतं भवति। विस्तीर्यते। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    ध्यान व ज्ञान

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु से रक्षित होकर जो व्यक्ति प्रभु के ध्यान में लगता है और (यस्य) = जिसका (सक्थि) =[सच् समवाये] प्रभु से मेलवाला व (कपृत्) = अपने में आनन्द का पूरण करनेवाला मन (अन्तर:) = अन्दर ही (आरम्बते) = स्थिर होता है-आश्नय करता है, (न स ईशे) = वह ही ईश नहीं है, अपितु (स इत् ईशम्) = वास्तविक ईश तो यह है (निषेदुष:) = नम्रता से आचार्यचरणों में बैठनेवाले (यस्य) = जिसका (रोमशम्) = [रोमणि शेते, सामानि यस्य लोमानित] साममन्त्रों में निवास करनेवाला मन (विजृम्भते) = विकसित होता है, अर्थात् जिसका मन ऋचाओं व यजुर्मन्त्रों का अध्ययन करके साममन्त्रों में निवास करता है, दूसरे शब्दों में जिसका मन सम्पूर्ण ज्ञान में अवस्थित होता है। २. यह ज्ञानी अनुभव करता है कि (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु (विश्वस्मात् उत्तरः) = सम्पूर्ण संसार से उत्कृष्ट हैं।

    भावार्थ

    जैसे ध्यानी पुरुष मन का ईश बनता है, उसी प्रकार ज्ञानी भी मन का वास्तविक ईश बनता है।

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    भाषार्थ

    (सः) वह इन्द्र अर्थात् विद्युत् (न ईशे) वर्षा की अधीश्वरी नहीं, (यस्य) जिसका कि (कपृत्) जल की पूर्त्ति करनेवाला मेघ, (सक्थ्या) आकर्षण द्वारा परस्पर संसक्त द्युलोक और भूलोक के (अन्तरा) मध्य में अर्थात् अन्तरिक्ष में (रम्बते) गर्जता रहता है। (स इत्) अपितु वह ही (ईशे) वर्षा का अधीश्वर है (निषेदुषः यस्य) एक स्थान में स्थित जिसका कि (रोमशम्) लोकसमूह जैसा रश्मिसमूह (विजृम्भते) विशेषरूप में सर्वत्र विचरता है, अर्थात् सूर्य का रश्मिसमूह। रश्मियों की गर्मी के कारण बादल बनते, और बरसते हैं। (विश्वस्मात्০) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    [रम्बते=रबि शब्दे। सक्थ्यौ=सजतीति सक्थि (उणादि कोश ३.१५४)। कपृत्=क (जल)+पृत् (पॄ पूरणे); जल के अभाव की पूर्ति करनेवाला मेघ। रोमशम्=इसके द्वारा वृषाकपि अर्थात् सूर्य का वर्णन है, जिसे कि उपनिषदों में हिरण्यकेश और हिरण्यश्मश्रू कहा है। सूर्य की किरणें ही “हिरण्यमय-केश” और “हिरण्यमय-श्मश्रू” है, जिन्हें मन्त्र में “रोमश” अर्थात् रोम-समूह कहा है। (निषेदुषः) वैदिक विज्ञान के अनुसार सूर्य चलता नहीं, अपितु वह सौर-मण्डल में सापेक्ष स्थिति की दृष्टि से सदा एक स्थान में स्थित है। मन्त्र में पुनः “इन्द्र और वृषाकपि” का वर्णन है। इन्द्र का यहाँ अभिप्राय—विद्युत् है, और वृषाकपि का अभिप्राय है—सूर्य। इन्द्र=विद्युत् (पूर्व मन्त्र ९)। वृषाकपि=सूर्य (निरु০ १२.३.२७)। “वृषाकपि” शब्द में “वृषा” पद स्पष्ट दर्शा रहा है कि सूर्य वर्षा का कारण है। वर्तमान मन्त्र में भी इसकी पुष्टि की गई है। मेघ में गर्जना का कारण विद्युत् है। यह प्रसिद्ध उक्ति है कि—“जो गर्जते हैं वे बरसते नहीं”।]

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    विषय

    जीव, प्रकृति और परमेश्वर।

    भावार्थ

    (यस्य) जिसका (कपृत्) कपाल, मस्तक (सक्थ्या अन्तरा) जांघों के बीच तक देवता के प्रति मनौती के लिये, या अपने से बड़े बलवान् को देखकर उसके आगे झुकने के लिये (रम्बते = लम्बते) लटक जाता है (न सः ईशे) वह स्वामी के समान शासन करने में समर्थ नहीं होता। (सः इत् ईशे) वही शासन करता है (निषेदुषः) राज्यासन पर विराजे हुए (यस्य) जिसका (रोमशं) लोमों या मूछों वाला मुख (विजृम्भते) विविध प्रकार से या विशेष रूप से खुलता और आज्ञा देता है। (विश्वस्मात् इन्द्रः उत्तरः) शत्रुनाशक ऐश्वर्यवान् राजा ही सबसे उत्कृष्ट है। अध्यात्म में—(यस्य) जिस जीवात्मा का (कपृत्) अल्प पालन सामर्थ्य या सुखग्राही चित्त (सक्थ्या अन्तरा) आसक्ति योग्य पदार्थों के बीच में ही (रम्बते, लम्बते) लटक जाता है, मुग्ध होजाता है। (न सः ईशे) वह संसार का स्वामी, ईश्वर नहीं हो सकता। (सः इत् ईशे) वही, ईश्वर है (निषेदुषः) निगूढ रूप से सर्वत्र व्यापक (यस्य) जिसका बनाया (रोमशम्) लोमयुक्त मुख के समान तेजस्वी किरणों से युक्त सूर्य (विजृम्भते) विविध दिशाओं में फैलता है। अथवा [रोमशं = रु शब्दे। रौति शब्दयति इति रोम तेन युक्तं] सर्व उपदेशकारी, प्रवचन या गुरुपदेश के समान ज्ञान विविध रूपों से प्रकाशित होता है वह (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) परमेश्वर सबसे ऊंचा है। अथवा [ रोमशं = लोमशं। लूयते इति लोम तद् = श्यति नाशयति इति लोमशम् ] अन्धकारों का काटने वाला और विघ्नों और जन्ममरण के बन्धनों को काटने वाला जिसका ज्ञानमय तेज सूर्य के समान चारों तरफ प्रखरता से विस्तृत है वह परमेश्वर सबसे ऊंचा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    That person does not rule over the self whose hedonic mind roams and rambles around among objects of sensual pleasure. That person rules as master of the self whose radiant mind in a state of peace and freedom blossoms and expands in spiritual wakefulness. Indra is supreme over all.

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    Translation

    That man or soul whose genitive organ always hangs between the thighs of woman may not have control over his organs. Yes, he who observing the discipline of strict celibacy keeps his organ under control may gain control overall the organs. The Almighty God is rarest of all and supreme over all.

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    Translation

    That man or soul whose genitive organ always hangs between the thighs of woman may not have control over his organs. Yes, he who observing the discipline of strict celibacy keeps his organ under control may gain control overall the organs. The Almighty God is rarest of all and supreme over all.

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    Translation

    O Mighty God, let this soul, capable of cultivating the blissful state of mind by shaking off the evil propensities the source of all trouble and unhappiness, know it for certain that the feeling ‘that he is away from God’ is dead and gone and that he has achieved the sharp weapon of spiritual grandeur with which he can cut asunder the binding knot of troubles and miseries, the sharp intellect generating divine qualities,-new devotional behavior, and life, fully saturated with high splendor and glory. The Almighty God is Supreme over all.

    Footnote

    The western scholars have read animal slaughter in this verse, due to their ascribing meanings of laukik Sanskrit to the Vedic text, thereby bringing the Vedas into contempt.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(न) निषेधे (सः) पुरुषः (ईशे) ईष्टे। ऐश्वर्यवान् भवति (यस्य) (रम्बते) लस्य रः। लम्बते। अधस्तादाश्रियते (अन्तरा) मध्ये (सक्थ्या) सक्थिनी। जङ्घे (कपृत्) क+पृ पालने-क्विप्, तुक्। कस्य शिरसः पालकः। कपालः (सः) (इत्) एव (ईशे) ईष्टे (यस्य) (रोमशम्) मत्वर्थे शप्रत्ययः। रोमयुक्तं मस्तकम् (निषेदुषः) उपविष्टस्य (विजृम्भते) विवृतं भवति। विस्तीर्यते। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (সঃ) সেই পুরুষ (ন ঈশে) ঐশ্বর্যবান হয় না, (যস্য) যার (কপৃৎ) শির পালক কপাল (সক্থ্যা অন্তরা) দুই উরুর মধ্যে/মাঝখানে (রম্বতে) ঝুলন্ত থাকে, (সঃ ইৎ) সেই পুরুষ (ঈশে) ঐশ্বর্যবান হয়, (যস্য নিষেদুষঃ) যে উপবিষ্ট [বিচারশীল/চিন্তাশীল] পুরুষের (রোমশম্) রোমযুক্ত মস্তক [জ্ঞানসামর্থ্য] (বিজৃম্ভতে) বিস্তৃত হয়, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সব [প্রাণী মাত্র] থেকে (উত্তরঃ) উত্তম॥১৬॥

    भावार्थ

    মনুষ্যের উচিৎ, আলস্য দ্বারা মস্তক নীচু করে নিজের জ্ঞানকে সঙ্কুচিত না করা, বরং সমস্ত দিকে মাথা পরিচালনা করে, বিচার করে/চিন্তা করে জ্ঞান বৃদ্ধি করে নিজের ইন্দ্রত্ব প্রদর্শিত করা॥১৬॥

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    भाषार्थ

    (সঃ) সেই ইন্দ্র অর্থাৎ বিদ্যুৎ (ন ঈশে) বর্ষার অধীশ্বরী নয়, (যস্য) যার (কপৃৎ) জলের পূর্ণতাকারী মেঘ, (সক্থ্যা) আকর্ষণ দ্বারা পরস্পর সংসক্ত দ্যুলোক এবং ভূলোকের (অন্তরা) মধ্যে অর্থাৎ অন্তরিক্ষে (রম্বতে) গর্জন করতে থাকে। (স ইৎ) অপিতু তা (ঈশে) বর্ষার অধীশ্বর (নিষেদুষঃ যস্য) এক স্থানে স্থিত যার (রোমশম্) লোকসমূহ সদৃশ রশ্মিসমূহ (বিজৃম্ভতে) বিশেষরূপে সর্বত্র বিচরণ করে, অর্থাৎ সূর্যের রশ্মিসমূহ। রশ্মির উত্তাপ কারণে মেঘ সৃষ্টি হয়, এবং বর্ষিত হয়। (বিশ্বস্মাৎ০) পূর্ববৎ।

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