अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 5
ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
सूक्तम् - सूक्त-१२६
15
प्रि॒या त॒ष्टानि॑ मे क॒पिर्व्य॑क्ता॒ व्यदूदुषत्। शिरो॒ न्वस्य राविषं॒ न सु॒गं दु॒ष्कृते॑ भुवं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठप्रि॒या । त॒ष्ठानि॑ । मे॒ । क॒पि: । विऽअ॑क्ता । वि । अ॒दू॒दु॒ष॒त् ॥ शिर॑: । नु । अ॒स्य॒ । रा॒वि॒ष॒म् । न । सु॒ऽगम् । दु॒:ऽकृते॑ । भु॒व॒म् । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रिया तष्टानि मे कपिर्व्यक्ता व्यदूदुषत्। शिरो न्वस्य राविषं न सुगं दुष्कृते भुवं विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठप्रिया । तष्ठानि । मे । कपि: । विऽअक्ता । वि । अदूदुषत् ॥ शिर: । नु । अस्य । राविषम् । न । सुऽगम् । दु:ऽकृते । भुवम् । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(कपिः) कपि [चञ्चल जीवात्मा] ने (मे) मेरे (व्यक्तानि) स्वच्छ किये हुए (प्रिया) प्यारे (तष्टानि) कर्मों को (वि) विरुद्धपन से (अदूदुषत्) दूषित कर दिया है (अस्य) इस [पाप कर्म] के (शिरः) शिर को (नु) अव (राविषम्) मैं काट डालूँ, और (दुष्कृते) दुष्ट कर्म में (सुगम्) सुगम (न) नहीं (भुवम्) हो जाऊँ, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥॥
भावार्थ
विद्वान् जितेन्द्रिय मनुष्य के मन में यदि पाप की लहर उठे, वह ज्ञान से उसको सर्वथा नष्ट करके अपना महत्त्व दृढ़ बनाये रक्खे ॥॥
टिप्पणी
−(प्रिया) कमनीयानि (तष्टानि) कृतानि कर्माणि (मे) मम (कपिः) म० १। कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च। उ० ४।१४४। कपि चलने-इप्रत्ययः। चपलो जीवात्मा (व्यक्ता) वि+अञ्जू-क्त। स्वच्छीकृतानि (वि) विरोधे (अदूदुषत्) दुष वैकृत्ये-णिच् लुङ्। दूषितवान् (शिरः) मस्तकम् (नु) इदानीम् (अस्य) पापकर्मणः (राविषम्) रुङ् गतिरेषणयोः-लुङ्, अडभावः। लुनीयाम् (न) निषेधे (सुगम्) यथा तथा सुगमम् (दुष्कृते) दुष्टकर्मणि (भुवम्) भवेयम्। अन्यद् गतम् ॥
विषय
विषयदोष-दर्शन
पदार्थ
१. प्रकृति कहती है कि (मे) = मुझसे तष्टानि बनाये गये (व्यक्ता:) = [adorned, decorated] अलंकृत (प्रिया) = देखने में बड़े प्रिय लगनेवाले इन विषयों को (कपि:) = यह वृषाकपि-विषयवासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाला (व्यदूदुषत्) = दूषित करता है-इन विषयों के दोषों को देखता हुआ इनमें फँसता नहीं। २. प्राकृत मनुष्य इन विषयों के दोषों को न देखता हुआ इनमें आसक्त हो जाता है। (नु) = अब प्रकृति (अस्य शिर:) = इस विषयासक्त पुरुष के सिर को (राविषम्) = [Sto break] तोड़-फोड़ देती है। यह प्रकृति कभी भी (दुष्कृते) = अशुभ कर्म करनेवाले के लिए न सुगं (भुवम्) = सुखकर गमनवाली नहीं होती। वस्तुतः प्रकृति-प्रवण हो जाना ही दोषपूर्ण है। (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (विश्वस्मात्) = सबसे (उत्तर:) = उत्कृष्ट हैं। उन्हीं की ओर चलना श्रेष्ठ है। प्रकृति के भोग तो प्रारम्भ में रमणीय लगते हुए भी परिणाम में विष-तुल्य हैं।
भावार्थ
प्राण-साधना करनेवाला पुरुष विषयदोष-दर्शन करता हुआ उनमें फँसता नहीं। सामान्य व्यक्ति इनमें फंसकर अशुभ मार्ग पर चलता है। इसके लिए यह प्रकृति ही अन्त में घातक हो जाती है।
भाषार्थ
(कपिः) कपि अर्थात् बन्दर समान वृषाकपि ने (मे) मेरे अर्थात् मुझ इन्द्राणी के (प्रिया) प्रिय और (व्यक्ता) अभिव्यक्त (तष्टानि) सुविचारित मनोभावनाओं को (व्यदूदुषत्) विशेषतया दूषित कर दिया है। इसलिए (अस्य) इस कपि अर्थात् वृषाकपि के (शिरः) शिर को (नु) निश्चयपूर्वक, (राविषम्) मैं इन्द्राणी ने विकृत कर दिया है, (दुष्कृते) इस दुष्कर्मी कपि अर्थात् वृषाकपि के लिए (सुगं न भुवम्) सुगमता से प्राप्त मैं नहीं हुई। (विश्वस्मात्০) पूर्ववत्।
टिप्पणी
[तष्टानि—तक्ष्=To invent, form in the mind (आप्टे)। राविषम्=रुङ् रेषणे। मन्त्र ४ और ५ विशेष-विचार के योग्य हैं। मन्त्र ४ में “श्वा” तथा “वराहयु” द्वारा वृषाकपि को परमेश्वर द्वारा रक्षा प्राप्त करने के अयोग्य ठहराया है, क्योंकि उसमें लोभ और अशुचिता विद्यमान हैं। मन्त्र ५ में वृषाकपि को केवल “कपि” अर्थात् बन्दर पद द्वारा स्मरण कर उसके शिर अर्थात् विचारों को विनाश योग्य ठहराया है। और कहा है कि इन्द्राणी ने जो सुविचारित निर्देश वृषाकपि को दिये थे, उन्हें वृषाकपि ने दूषित कर दिया है। इसलिए वृषाकपि के विचार दूषित हैं, और वह दुष्कर्मी बन गया है, अतः मैं इन्द्राणी उसे सुगमता से प्राप्त होने योग्य नहीं हूँ। वृषाकपि को केवल कपि कह कर कपि अर्थात् बन्दरों की सी आदतवाला दर्शाया है। इस द्वारा कपि की कामुकता का निर्देश कर वृषाकपि अर्थात् जीवात्मा की कामुकता को सूचित किया गया है। जीवात्मा की यह कामुकता उसके विचारों को दूषित करके उसे दुष्कर्मी बना देता है, इससे जीवात्मा आध्यात्मिक-इन्द्राणी को प्राप्त नहीं हो सकता। कपि (=बन्दर) की कामुकता का निर्देशक मन्त्र निम्नलिखित है। यथा— श्वेवैकः॑ क॒पिरि॒वैकः॑ कुमा॒रः स॑र्वकेश॒कः। प्रि॒यो दृ॒श इ॑व भू॒त्वा ग॑न्ध॒र्वः स॑चते॒ स्त्रिय॒स्तमि॒तो ना॑शयामसि॒ ब्रह्म॑णा वी॒र्यावता॥ अथर्व০ ४.३७.११॥ “कपिरिवैकः कुमारः” द्वारा कपि के सदृश कुत्सित “मार” अर्थात् कामवासना का निर्देश दिया है। इसी प्रकार “शुनां कपिरिव दूषणः” (अथर्व০ ३.९.४) द्वारा कपि के सम्बन्ध में दूषण शब्द का प्रयोग किया है, जैसे कि मन्त्र ५ में “व्यदूदुषत्” द्वारा दर्शाया है। इन दृष्टियों में अर्थात् लोभ, अशुचिता, और कामुकता की दृष्टियों में मन्त्र ४ तथा ५ में “वृषाकपि” का अर्थ बदल गया है, वृषा अर्थात् वीर्य की वर्षा करनेवाला, कपि के समान कामी। ५ के पूर्व के मन्त्रों में वृषाकपि का सात्विक भावनावाला अर्थ दर्शाया गया है। इन्द्राणी=इन्द्र की शक्ति। इन्द्र के दो अर्थ हैं—परमेश्वर, और इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीवात्मा। परमेश्वर विभु है, और प्रभुता से सम्पन्न है। यथा—“भूयानरात्याः शच्याः पतिस्त्वमिन्द्रासि विभूः प्रभूरिति त्वोपास्महे वयम्” (अथर्व০ का০ १३, सू০ ४ (५), मन्त्र ४७)। जीवात्मा परिच्छिन्न है, और इन्द्रियों सहित देह में रहता है। ओम् के जप तथा ओम्-वाच्य परमेश्वर के चिन्तन द्वारा जीवात्मा को दो शक्तियाँ प्रादुर्भूत होती हैं—(१) जीवात्मा का विवेकज्ञान, और (२) परमेश्वर की कृपा। इन दोनों के मेल को “इन्द्राणी” कहा गया है। योगदर्शन में कहा है कि—ओम् के जप तथा ईश-चिन्तन द्वारा जीवात्मा को “प्रत्यक्-चेतना” का अधिगम होता है, तथा परमेश्वर का साक्षात्कार भी (योग १.२९)। इन दो शक्तियों के मेल को, अर्थात् इन्द्राणी को, केनोपनिषद् में “उमा” कहा है। वह “उमा” ओम् के जप तथा चिन्तन द्वारा आविर्भूत होती है। ओम्=अ+उ+म्। उमा=उ+म्+अ+आ (स्त्रीलिङ्ग)। केनोपनिषद् की कथा के अनुसार एक “यक्ष” प्रकट हुआ, जिसे जानने के लिए अग्नि वायु देवता आगे बढ़े, परन्तु वे न जान सके कि यह यज्ञ है क्या? अन्त में इन्द्र (=जीवात्मा) आगे बढ़े यज्ञ को जानने के लिए। उस समय “उमा” स्त्री के रूप में आकाश में प्रकट हुई, जो कि बहुुशोभमाया थी, और हिम समान शुभ्र अर्थात् सात्विक उसका रूप था। उमा ने यक्ष के सम्बन्ध में इन्द्र (=जीवात्मा) को कहा कि यक्ष “ब्रह्म” है। जीवात्मा को, उमा द्वारा तब ब्रह्म का ज्ञान मिलता है, जब कि जीवात्मा लोभ, अशुचिता, काम-वासना से रहित होकर ओम् का जप, तथा ओम्-वाच्य ईश्वर के चिन्तन में मग्न हो जाता है।
विषय
जीव, प्रकृति और परमेश्वर।
भावार्थ
(कपिः) विषय वेगों से कम्पित, विचलित होजाने वाला, वानर के समान अति चन्चल स्वभाव होकर यह आत्मा (मे) मेरे (तष्टानि) बनाये गये मुझ प्रकृति में से परमेश्वर द्वारा सृजे गये, (प्रिया) प्रिय लगने वाले, (व्यक्ता) व्यक्त, प्रकट हुए पदार्थों को वह (वि अदूदुषत्) विविध प्रकार से भोग कर लेता है (नु अस्य) इसके तो मैं, प्रकृति (शिरः) शिर, अर्थात् मुख्य स्वरूप को (राविषं) नष्ट कर देती हूं। (दुष्कृते) दुष्ट आचरण करने वाले के लिये मैं (सुगं नं भुवम्) सुखकारिणी कभी नहीं होती। (इन्द्रः विश्वस्मात् उत्तरः) वह ऐश्वर्यवान् परमेश्वर सबसे उत्तम है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
And all my dear forms of existence wrought into beauteous being, he pollutes. I would rather push his head down, I would not be good and never allow him anything too easily for this sinner. Indra is supreme over all the world.
Translation
This monkey-like soul with its over-indulgence ands attachment in enjoying the manifest objects made of matter spoils them and this matter or nature makes its head bow down. This matter does not become pleasant for the man doing evil deeds. The Almighty God is rarest of all and supreme over all.
Translation
This monky-like soul with its over-indulgence and attachment in enjoying the manifest objects made of matter spoils them and this matter or nature makes its head bow down. This matter does not become pleasant for the man doing evil deeds, The Almighty God is rarest of all and supreme over all.
Translation
O powerful, comfort-affording and dear mother (i.e., primeval matter) as you had been before, so shall you remain in future. O mother, let thy splendor, the synthetic energy and power of perception of all the sense-organs in the head, be all a source of joy and happiness to me. The Mighty Lord is the Mightiest of all.
Footnote
The soul addresses the matter.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
−(प्रिया) कमनीयानि (तष्टानि) कृतानि कर्माणि (मे) मम (कपिः) म० १। कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च। उ० ४।१४४। कपि चलने-इप्रत्ययः। चपलो जीवात्मा (व्यक्ता) वि+अञ्जू-क्त। स्वच्छीकृतानि (वि) विरोधे (अदूदुषत्) दुष वैकृत्ये-णिच् लुङ्। दूषितवान् (शिरः) मस्तकम् (नु) इदानीम् (अस्य) पापकर्मणः (राविषम्) रुङ् गतिरेषणयोः-लुङ्, अडभावः। लुनीयाम् (न) निषेधे (सुगम्) यथा तथा सुगमम् (दुष्कृते) दुष्टकर्मणि (भुवम्) भवेयम्। अन्यद् गतम् ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(কপিঃ) কপি [চঞ্চল জীবাত্মা] (মে) আমার (ব্যক্তানি) স্বচ্ছ কৃত (প্রিয়া) প্রিয় (তষ্টানি) কর্মসমূহ (বি) বিরুদ্ধাচরণ দ্বারা (অদূদুষৎ) দূষিত করে দিয়েছে (অস্য) এর [পাপ কর্মের] (শিরঃ) মাথা (নু) এখন (রাবিষম্) আমি ছিন্ন করি, এবং (দুষ্কৃতে) দুষ্ট কর্মে/দুষ্কর্মে (সুগম্) সুগম যেন (ন) না (ভুবম্) হই, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম্ ঐশ্বর্যবান্ মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সকল [প্রাণী মাত্র] থেকে (উত্তরঃ) উত্তম॥৫॥
भावार्थ
যদি কোনো বিদগ্ধ জিতেন্দ্রিয় পুরুষের মনে পাপের তরঙ্গ উদয় হয়, তবে সে যেন জ্ঞান দ্বারা তা সম্পূর্ণরূপে ধ্বংস করে তার গুরুত্বকে দৃঢ় করে ॥৫॥
भाषार्थ
(কপিঃ) কপি অর্থাৎ বানরের সমান বৃষাকপি (মে) আমার অর্থাৎ [আমার] ইন্দ্রাণী-এর (প্রিয়া) প্রিয় এবং (ব্যক্তা) অভিব্যক্ত (তষ্টানি) সুবিচারিত মনোভাবনাকে (ব্যদূদুষৎ) বিশেষভাবে দূষিত করে দিয়েছে। এইজন্য (অস্য) এই কপি অর্থাৎ বৃষাকপি-এর (শিরঃ) শিরকে (নু) নিশ্চয়পূর্বক, (রাবিষম্) আমি ইন্দ্রাণী বিকৃত করেছি/করে দিয়েছি, (দুষ্কৃতে) এই দুষ্কর্মী কপি অর্থাৎ বৃষাকপির জন্য (সুগং ন ভুবম্) সুগমতা দ্বারা প্রাপ্ত আমি হইনি। (বিশ্বস্মাৎ০) পূর্ববৎ।
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