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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६
    22

    न मत्स्त्री सु॑भ॒सत्त॑रा॒ न सु॒याशु॑तरा भुवत्। न मत्प्रति॑च्यवीयसी॒ न सक्थ्युद्य॑मीयसी॒ विश्व॑स्मादिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । मत् । स्त्री । सु॒भ॒सत्ऽत॑रा । न । सु॒याशु॑ऽतरा । भु॒व॒त् ॥ न । मत् । प्रति॑ऽच्यवीयसी । न । सक्थि॑ । उत्ऽय॑मीयसी । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न मत्स्त्री सुभसत्तरा न सुयाशुतरा भुवत्। न मत्प्रतिच्यवीयसी न सक्थ्युद्यमीयसी विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । मत् । स्त्री । सुभसत्ऽतरा । न । सुयाशुऽतरा । भुवत् ॥ न । मत् । प्रतिऽच्यवीयसी । न । सक्थि । उत्ऽयमीयसी । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्त्री) कोई स्त्री (मत्) मुझसे (न)(सुभसत्तरा) अधिक बड़ी शोभावाली, (न)(सुयाशुतरा) अधिक सुन्दर यत्नवाली, (न)(मत्) मुझसे (प्रतिच्यवीयसी) अधिक सहनेवाली और (न)(सक्थि) जङ्घा [आदि शरीर के अङ्गों] को (उद्यमीयसी) उद्योग में अधिक लगानेवाली (भुवत्) होवे, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥६॥

    भावार्थ

    स्त्रियाँ भी मनुष्यशरीर पाकर सब प्रकार विद्या ग्रहण करें और कर्तव्य में चतुर बनकर अन्य स्त्रियों और प्राणियों से अपनी शोभा अधिक बढ़ावें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(न) निषेधे (मत्) मत्तः (स्त्री) अन्या नारी (सुभसत्तरा) शॄदॄभसोऽदिः। उ० १।१३०। भस दीप्तौ-अदि। अधिकसुदीप्यमाना। सुभगतरा (न) (सुयाशुतरा) यसु प्रयत्ने-उण्, सस्य शः। अतिशयेन सुप्रयतमाना (भुवत्) भवेत् (न) (मत्) (प्रतिच्यवीयसी) च्युङ् सहने गतौ च-तृच्, ईयसुन्। प्रत्यक्षेणाधिकच्यावयित्री। अधिकसहनशीला (न) (सक्थि) जङ्घादिशरीराङ्गजातम् (उद्यमीयसी) यमु उपरमे-तृच्, ईयसुन्। अतिशयेन उद्यमयित्री। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    प्रकृति का आकर्षण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार विषयदोष-दर्शन करनेवाले वृषाकपि से इन्द्राणी [प्रकृति] कहती है कि (मत्) = मुझसे (सुभसत्तरा) = अधिक दीप्तिवाली [भस दीप्तौ] (स्त्री न) = स्त्री नहीं है और (न) = न ही (सुयाशुतरा) = [या+अश] अधिक उत्तमता से प्रास होनेवाली व भोगों को प्राप्त करानेवाली (भुवत्) = है। प्रकृति को प्राप्त करना सुगम है और वहाँ सब भोग प्राप्त होते हैं। (न) = न ही (मत्) = मुझसे अधिक (प्रतिच्यवीयसी) = प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होनेवाली है और (न) = न ही (सक्थि) = आसक्तिपूर्वक (उद्यमीयसी) = स्थिति को उन्नत करनेवाली है। 'सक्थि' शब्द 'सच्' धातु से बनकर आसक्ति व प्रेम के भाव को प्रकट कर रहा है। प्रकृति चमकती है [सुभसत्], विविध भोगों को प्राप्त कराती है [सुयाशु], सबकी ओर आती है [प्रतिच्यवीयसी] और सांसारिक स्थिति को ऊँचा कर देती है [सक्थि उद्यमीयसी]।२. (मे) = मेरा पति (इन्द्रः) = परमैश्वर्यवान् प्रभु भी तो (विश्वस्मात् उत्तरः) = सबसे उत्कृष्ट है, अत: इस वृषाकपि का मुझमें दोष देखना तो ठीक नहीं। मेरे प्रति उसका आकर्षण होना ही चाहिए।

    भावार्थ

    प्रकृति चमकती है, सामान्यत: मनुष्य उसकी ओर आकृष्ट होता ही है।

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    भाषार्थ

    (मत्) मुझ इन्द्राणी से बढ़ कर (स्त्री) कोई स्त्री (सुभसत्तरा) उत्तम शोभावाली (न) नहीं है, (न) और न (सुयाशुतरा भुवत्) कार्यों को उत्तम प्रकार से तथा शीघ्रता से समाप्त करनेवाली है। (न) और न (मत्) मुझ से बढ़कर कोई (प्रतिच्यवीयसी) प्रतिद्वन्द्वियों को च्युत अर्थात् परास्त कर सकनेवाली है, (न) और न (सक्थ्युद्यमीयसी) टांगों द्वारा अधिक उद्यम करनेवाली है। (विष्वस्मात০) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    [मन्त्र ५ की व्याख्या के प्रसङ्ग में “उमा” कहा वर्णन हुआ है। ‘उमा’ को स्त्री कहा गया है, और केनोपनिषद् में यह भी कहा है कि वह बहुशोभमाना तथा शुभ्रवर्णवाली है। ‘उमा’ के प्रसङ्ग में स्त्रीजाति में जो सद्गुण होने चाहिएँ, उनका संक्षिप्त वर्णन मन्त्र ६ से किया गया है। भसत्=भस् दीप्तौ, अर्थात् शोभावाली=इसीलिए ‘भसत्’ का अर्थ सूर्य भी है, क्योंकि सूर्य दीप्तिमान् है। भसद्=The Sun (आप्टे)।]

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    विषय

    जीव, प्रकृति और परमेश्वर।

    भावार्थ

    (मत्) मुझसे बढ़के (स्त्री) कोई स्त्री, (सुभसत्-तरान) उत्तम कान्तिमती, सौभाग्यवती नहीं है। और मुझसे बढ़कर कोई स्त्री (सुयाशुतरा) सुख पूर्वक पति का संग करने वाली, उसको सुखप्रद (न भुवत्) नहीं है। (मत्) मुझसे बढ़कर (प्रतिच्यवीयसी) पति के प्रति विनय से झुकने वाली भी कोई दूसरी नहीं है। (सक्थ्युद्यमीयसी न) जिस प्रकार स्त्री पति के संगकाल में जंघा आदि उठाती है उसी प्रकार मुझसे बढ़कर कोई दूसरी सक्थि अर्थात् समवाय शक्ति से (उद्यमीयसी) ईश्वरीय तेज को नियमन करने, धारण करने वाली भी नहीं है। इस लिये (इन्द्रः) वह ऐश्वर्यवान् मुझ प्रकृति का पति परमेश्वर ही सबसे ऊंचा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    There is no other creative consort of Indra other than Prakrti, no female more charming, more agreeable, more pliant, more responsive, more attractive and more elevating, none other than me. Indra is supreme over all the world.

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    Translation

    No dame else than this matter has greater charm and is eager to go in the arms of her husband. No one of dames but this matter goes to her lord so frequently and offers her to his embrace. The Almighty God is rarest of all and supreme over all.

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    Translation

    No dame else than this matter has greater charm and is eager to go in the arms of her husband. No one of dames but this matter goes to her lord so frequently and offers her to his embrace. The Almighty God is rarest of all and supreme over all.

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    Translation

    O Primeval matter, capable of ensnaring the souls in thy beautiful arms of attractive charms, possessed of brilliance in every parts of thine, spreading thy long tantacles, like the hair-knots of a woman, having vast and pervading energy, with this Brave Lord as thy master, why'art thou angry with this powerful and energetic soul of ours? The Almighty God is the supremest of all.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(न) निषेधे (मत्) मत्तः (स्त्री) अन्या नारी (सुभसत्तरा) शॄदॄभसोऽदिः। उ० १।१३०। भस दीप्तौ-अदि। अधिकसुदीप्यमाना। सुभगतरा (न) (सुयाशुतरा) यसु प्रयत्ने-उण्, सस्य शः। अतिशयेन सुप्रयतमाना (भुवत्) भवेत् (न) (मत्) (प्रतिच्यवीयसी) च्युङ् सहने गतौ च-तृच्, ईयसुन्। प्रत्यक्षेणाधिकच्यावयित्री। अधिकसहनशीला (न) (सक्थि) जङ्घादिशरीराङ्गजातम् (उद्यमीयसी) यमु उपरमे-तृच्, ईयसुन्। अतिशयेन उद्यमयित्री। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (স্ত্রী) কোনো নারী/স্ত্রী (মৎ) আমার থেকে (ন) না (সুভসত্তরা) অধিক বেশি শোভাযুক্ত, (ন) না (সুয়াশুতরা) অধিক সুন্দর যত্নশীল, (ন) না (মৎ) আমার থেকে (প্রতিচ্যবীয়সী) অধিক সহনশীল এবং (ন) না (সক্থি) উরু [ইত্যাদি শরীরের অঙ্গসমূহ] (উদ্যমীয়সী) অধিক উদ্যোগী (ভুবৎ) হোক, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [পরম্ ঐশ্বর্যবান্ মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সকল [প্রাণী মাত্র] থেকে (উত্তরঃ) উত্তম॥৬॥

    भावार्थ

    নারীরাও মানবদেহ প্রাপ্ত করে সর্বপ্রকার জ্ঞান লাভ করে, কর্তব্যে বুদ্ধিমান হয়ে অন্যান্য নারী ও প্রাণীর চেয়ে নিজের সৌন্দর্য বৃদ্ধি করুক॥৬॥

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    भाषार्थ

    (মৎ) আমার ইন্দ্রাণী-এর থেকে উত্তম (স্ত্রী) কোনো স্ত্রী (সুভসত্তরা) উত্তম শোভাময়ী (ন) নেই, (ন) এবং না (সুয়াশুতরা ভুবৎ) কার্য উত্তম প্রকারে তথা শীঘ্রতাপূর্বক সমাপ্তকারী/সম্পন্নকারী। (ন) এবং না (মৎ) আমার থেকে উত্তম (প্রতিচ্যবীয়সী) প্রতিদ্বন্দ্বীদের চ্যুত অর্থাৎ পরাস্তকারী আছে, (ন) এবং না (সক্থ্যুদ্যমীয়সী) পায়ের দ্বারা অধিক উদ্যমশীল আছে। (বিষ্বস্মাত০) পূর্ববৎ।

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