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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 126 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 126/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वृषाकपिरिन्द्राणी च देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-१२६
    14

    यमि॒मं त्वं वृ॒षाक॑पिं प्रि॒यमि॑न्द्राभि॒रक्ष॑सि। श्वा न्व॑स्य जम्भिष॒दपि॒ कर्णे॑ वराह॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । इ॒यम् । त्वम् । वृ॒षाक॑पिम् । प्रि॒यम् । इन्द्र॒ । अ॒भि॒रक्ष॑सि ॥ श्वा । नु । अ॒स्य॒ । ज॒म्भि॒ष॒त् । अपि॑ । कर्णे॑ । व॒रा॒ह॒ऽयु: । विश्व॑स्मात् । इन्द्र॑: । उत्ऽत॑र ॥१२६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमिमं त्वं वृषाकपिं प्रियमिन्द्राभिरक्षसि। श्वा न्वस्य जम्भिषदपि कर्णे वराहयुर्विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । इयम् । त्वम् । वृषाकपिम् । प्रियम् । इन्द्र । अभिरक्षसि ॥ श्वा । नु । अस्य । जम्भिषत् । अपि । कर्णे । वराहऽयु: । विश्वस्मात् । इन्द्र: । उत्ऽतर ॥१२६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 126; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    गृहस्थ के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (त्वम्) तू (यम्) जिस (इमम्) इस (प्रियम्) प्यारे (वृषाकपिम्) वृषाकपि [बलवान् चेष्टा करानेवाले जीवात्मा] की (अभिरक्षसि) सब ओर से रक्षा करे, [तो] (नु) क्या (वराहयुः) सुअर को ढूँढनेवाला (श्वा) कुत्ता [अर्थात् पाप कर्म] (अस्य) इस [सूअर अर्थात् जीव] के (अपि) भी (कर्णे) कान में (जम्भिषत्) काटेगा, (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (विश्वस्मात्) सब [प्राणी मात्र] से (उत्तरः) उत्तम है ॥४॥

    भावार्थ

    जब सब प्राणियों में श्रेष्ठ मनुष्य अपने आत्मा को अपने वश में कर लेता है, तब उसको कोई पाप कर्म ऐसा नहीं सताता है, जैसे कुत्ता सूअर को कान पकड़कर झँझोर डालता है ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(यम्) जीवात्मानम् (इमम्) शरीरे विद्यमानम् (त्वम्) (वृषाकपिम्) म० १। बलवच्चेष्टाकारकं जीवात्मानम् (प्रियम्) इष्टम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (अभिरक्षसि) परिपालयसि (श्वा) कुक्कुरः (नु) प्रश्ने (अस्य) जीवात्मनः (जम्भिषत्) भक्षयेत् (अपि) एव (कर्णे) श्रोत्रे (वराहयुः) वराहं शूकरमिच्छन्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    वराहावतार

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (यम्) = जिस (इमम्) = इस (प्रियम्) = अपने कर्मों से आपको प्रीणित करनेवाले, अपने हरितत्व व मृगत्व के द्वारा प्रभु का प्रिय बननेवाले (वृषाकपिम्) = वृषाकपि को (त्वम्) = आप (अभिरक्षसि) = शरीर में रोगों से तथा मन में राग-द्वेष से बचाते हो, (नु) = अब ऐसा होने पर (श्वा) = [मातरिश्वा] वायु, अर्थात् प्राण (अस्य) = इसके (जम्भिषत्) = सब दोषों को खा जाता है। प्राण-साधना से इसके सब दोष दूर हो जाते हैं। प्राण-साधना से दोष दूर होते ही हैं, मानो प्राण सब दोषों को खा जाते हैं। २. इतना ही नहीं, (कर्णे) = [क विक्षेपे]-चित्तवृत्ति का विक्षेप होने पर ये प्राण (वराहयः अपि) = [वरं वरम् आहन्ति, प्रापयति] श्रेष्ठता को प्राप्त करानेवाले प्रभु से मेल करानेवाले भी हैं। प्राणायाम से मन का निरोध होता है और इसप्रकार प्राण हमें प्रभु से मिलाते हैं, जोकि 'वराह' है-सब वर पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं। इसप्रकार प्राण हमें विषय-समुद्र में डूबने से बचाते हैं। ये इन्द्रः प्रभु विश्वस्मात् उत्तरः सबसे उत्कृष्ट हैं।

    भावार्थ

    प्रभु-रक्षण प्राप्त होने पर, प्राणसाधना से हम सब दोषों को दूर करके प्रभु से मेलवाले होते हैं।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (त्वम्) आप, (यम् इमम्) जिस इस (प्रियम्) प्रिय (वृषाकपिम्) वृषाकपि की (अभि रक्षसि) रक्षा करते हैं, मानो (अस्य कर्णे अपि) इसके कान में भी (नु) निश्चय से (श्वा) कुत्ते ने (जम्भिषत्) काट लिया है, (वराहयुः) जो कुत्ता कि वराह का पीछा करता है। (विश्वस्मात्০) पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    [“श्वा” का अर्थ है—कुत्ता, और वराह का अर्थ है—सूअर। सूअर महा-अपवित्र होता है, और कुत्ता कुछ कम अपवित्र। अपवित्रता में कुत्ता अनुगामी है सूअर का। इसलिए कुत्ते को वराहयुः कहा है। वराहयु का अर्थ है—“वराहमनु याति,” जो कि वराह का अनुगामी है। वराहयुः=वराह+या+कुः; यथा मृगयुः (उणादि कोष १.३७)। कुत्ता लोभी होता है, इसीलिए कुत्ते की भूख के लिए अंग्रेजी में canine Appetite शब्द का प्रयोग होता है। “कुत्ते ने काट लिया”—इसका यहाँ अभिप्राय है—“सांसारिक लोभों ने काट लिया”। मन्त्र में “श्वा” शब्द का अभिप्राय है—लोभ। कुत्ते की दो प्रवृत्तियों का निर्देश मन्त्र में हुआ है। “वराहयु” शब्द द्वारा अपवित्रता का, और “श्वा” द्वारा लोभ का। आध्यात्मिक-अभ्यास का पहला प्रक्रम श्रवण से आरम्भ होता है, तदनन्तर मनन और निदिध्यासन का। जो व्यक्ति श्रवण नहीं करता, मानो कुत्ते ने उसका कान काट लिया है, अर्थात् सांसारिक लोभों में लिप्त तथा रत रहने के कारण तथा अपवित्र आचरण के कारण वह श्रवण-मनन आदि से रहित हुआ-हुआ है। कान का काम है श्रवण करना। कान काटा गया, तो श्रवण नहीं हो सकता। मन्त्र में कान द्वारा आध्यात्मिक कान का वर्णन है। जैसे कहा है—“उत त्वः शृण्वन् न शृणोत्येनाम्”। (ऋ০ १०.७१.४)। मन्त्रों में “श्वा” शब्द का लाक्षणिक प्रयोग भी हुआ है। यथा—“श्वा इव” अथर्व০ ४.३७.११; तथा “श्वयातुम्” (अथर्व০ ८.४.३२)। आधिदैविक दृष्टि में निरुक्त में “वृषाकपि” का अर्थ सूर्य कहा है (१२.३.२७)। ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से “श्वा” का अर्थ है Dogstar। Dogstar का पारिभाषिक नाम है Sirius। इसे canicula भी कहते हैं। द्युलोक में यह तारा सर्वाधिक प्रकाशमान है। यह canis major नक्षत्र-मण्डल में स्थित है, जिसे कि great-dog भी कहते हैं। Dogstar का उदय, जब सूर्योदय समकालीन होता है, तो मानो Dogstar ने सूर्य अर्थात् वृषाकपि का कान काट लिया है। Dogstar के उदय की दृष्टि से उतने काल को Dog-days कहते हैं, जितने काल तक यह सूर्योदय के साथ-साथ उदित होता रहता है। यह काल ३ जुलाई से ११ अगस्त तक का होता है। यह काल वर्षाकाल है। इस काल में बादलों के कारण सूर्य प्रायः छिपा रहता है। मानो “श्वा” ने इसका कान काटा है, और सूर्य पीड़ा के कारण दर्शन नहीं दे रहा है। संस्कृत में Sirius तारे को “लुब्धक” कहते हैं। लुब्धक का अर्थ है “लोभी” जो कुत्ते की लोभवृत्ति को दर्शाता है। इसी मांसलोभ के कारण “श्वा” ने “वृषाकपि” का कान काट लिया है।

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    विषय

    जीव, प्रकृति और परमेश्वर।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! (यम् इमम्) जिस इस (वृषाकपिम्) सामर्थ्यवान् तेजस्वी, (प्रियम्) अपने प्रिय, जीव की तू (अभिरक्षसि) सब ओर से रक्षा करता है उस जीव को (अस्य कर्णे) इसके कर्म के निमित्त (वराहयुः) वायु को कामना करने वाला (श्वा) आशु गतिशील प्राण (नु) ही (जम्भिषत्) उसे पकड़ लेता, या बान्ध लेता है अथवा—(वराहयुः) वायु या प्राण वायु के अभिलाषी, अथवा (वराहयुः) उत्तम कहाने योग्य पदार्थों का अभिलाषी (श्वा) कुक्कुर के समान भोग करने वाला देह इसको (जम्भिषत्) अपने बन्धन में डाल लेता है। (विश्वस्मात् इन्द्रः उत्तरः) वह परमेश्वर ही सबसे ऊंचा है जो कभी देह बन्धन में नहीं आता। जिस सामर्थ्यवान् जीव का ईश्वर रक्षक है वह जीवात्मा जब जब भी कर्म करता है तब तब प्राण से जीवित, भोगायतन देह उसको बांध लेता है। परन्तु संसार को चलाने हारे परमेश्वर पर वह देहबंधन नहीं लगता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वृषाकपिरिन्द्र इन्द्राणी च ऋषयः। इन्द्रो देवता। पंक्तिः। त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    Indra, your darling Vrshakapi whom you protect and favour so much falls a victim to greed which crushes him in its jaws as a hound seizes a boar by the ear. Indra is supreme over the whole creation.

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    Translation

    O Almighty God on the organs of this soul whom you guard on all sides, the greed like the dog running after pig has made impact. Almighty God is rarest of all and supreme over all.

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    Translation

    O Almighty God on the organs of this soul whom you guard on all sides, the greed like the dog running after pig has made impact. Almighty God is rarest of all and supreme over all.

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    Translation

    No female is more charming and attractive than myself (i.e., matter) nor more comfortable a companion to her husband than I. No female is more amenable to her husband’s approaches than I, nor is she ready to bear the burden of her husband upon herself so readily, as do I, the huge splendor of God, my husband. He is far greater than all.

    Footnote

    (5-6) Verses relate the relation of the soul and matter and matter and God respectively.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(यम्) जीवात्मानम् (इमम्) शरीरे विद्यमानम् (त्वम्) (वृषाकपिम्) म० १। बलवच्चेष्टाकारकं जीवात्मानम् (प्रियम्) इष्टम् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् मनुष्य (अभिरक्षसि) परिपालयसि (श्वा) कुक्कुरः (नु) प्रश्ने (अस्य) जीवात्मनः (जम्भिषत्) भक्षयेत् (अपि) एव (कर्णे) श्रोत्रे (वराहयुः) वराहं शूकरमिच्छन्। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    গৃহস্থকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম্ ঐশ্বর্যবান মনুষ্য] (ত্বম্) তুমি (যম্) যে (ইমম্) এই (প্রিয়ম্) প্রিয় (বৃষাকপিম্) বৃষাকপিকে [প্রচেষ্টাকারী জীবাত্মাকে] (অভিরক্ষসি) সব দিক থেকে রক্ষা করো, [তাহলে] (নু) কি (বরাহয়ুঃ) শূকরের অন্বেষণকারী (শ্বা) কুকুর [অর্থাৎ পাপ কর্ম] (অস্য) এই [শূকরের অর্থাৎ জীবের] (অপি) কেবল (কর্ণে) কানে (জম্ভিষৎ) দন্তাঘাত করবে, (ইন্দ্রঃ) ইন্দ্র [মহান ঐশ্বর্যবান মনুষ্য] (বিশ্বস্মাৎ) সকল [প্রাণীমাত্র] থেকে (উত্তরঃ) উত্তম ॥৪॥

    भावार्थ

    সমস্ত প্রাণীর মধ্যে শ্রেষ্ঠ মনুষ্য যখন নিজ আত্মাকে নিজের বশে/নিয়ন্ত্রণে নিয়ে আসে, তখন কোন পাপ কর্ম তাঁকে বিরক্ত করে না, যেমন কুকুর শূকরের কান ধরে ছিদ্র করে দেয়॥৪॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (ত্বম্) আপনি, (যম্ ইমম্) যে এই (প্রিয়ম্) প্রিয় (বৃষাকপিম্) বৃষাকপি-এর (অভি রক্ষসি) রক্ষা করেন, মানো (অস্য কর্ণে অপি) এর কানেও (নু) নিশ্চিতরূপে (শ্বা) কুকুর (জম্ভিষৎ) কামড়ে দিয়েছে, (বরাহয়ুঃ) যে কুকুর বরাহের পিছু নেয়। (বিশ্বস্মাৎ০) পূর্ববৎ।

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