अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 129/ मन्त्र 18
अश्व॑स्य॒ वारो॑ गोशपद्य॒के ॥
स्वर सहित पद पाठअश्व॑स्य॒ । वार॑: । गोशपद्य॒के ॥१२९.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वस्य वारो गोशपद्यके ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वस्य । वार: । गोशपद्यके ॥१२९.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य के लिये प्रयत्न का उपदेश।
पदार्थ
(अश्वस्य वारः) अश्ववार [घुड़चढ़ा, घोड़ा लेने को] (गोशपद्यके) गौओं के सोने के स्थान में [व्यर्थ है] ॥१८॥
भावार्थ
सेवा करनेवाली अर्थात् उचित काम में लगी हुई बुद्धि तीव्र होती है, घुड़चढ़े को उत्तम घोड़ा घुड़साल में मिलता है, गोशाला में नहीं ॥१७, १८॥
टिप्पणी
१८−(अश्वस्य) तुरङ्गस्य (वारः) वारयिता। आरूढः (गोशपद्यके) गो+शीङ् शयने-ड+पद-यत्, स्वार्थे कन्। गोशयनस्थाने। गोष्ठे ॥
विषय
सेवावृत्ति व प्रभु का वरण
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार व्रतमय जीवनवाला व्यक्ति कहता है कि (केविका) = [केव to serve] मुझमें सब सेवा की वृत्ति (अजागार) = [जागरिता अभवत्] जागरित हो गई है। मैं अब स्वार्थ से ऊपर उठकर परार्थ में प्रवृत्त हुआ हूँ। २. अब मैं तो (गोशपद्यके) = [गोषु शेते पद्यते] ज्ञान की वाणियों में ही शयन [निवास] व गति के होने पर (अश्वस्य) = [अश् व्याप्ती] उस सर्वव्यापक प्रभु का ही (वार:) = वरण करनेवाला बना हूँ। मेरी इच्छा तो अब एकमात्र यही है कि मैं वेदरुचिवाला व वेदानुसार कार्य करनेवाला बनकर, परार्थ में प्रवृत्त हुआ-हुआ सर्वभूतहिते रत बना हुआ-प्रभु का धारण कर पाऊँ।
भावार्थ
मुझमें सेवा की वृत्ति का जागरण हो। मैं सदा ज्ञान की रुचिवाला व तदनुसार कर्म करता हुआ प्रभु का ही वरण करूँ।
भाषार्थ
हे जीवात्मन्! तू तो (अश्वस्य) अश्व को (वारः) नियन्त्रित करनेवाला घुड़-सवार है, परन्तु (गोशपद्यके) गौ के खुर से पिसा जा रहा है।
टिप्पणी
[वारः=रोकनेवाला, निवारण करनेवाला। गोशपद्यके=गो+शफ (खुर)+दो (अवखण्डने); या दीङ् (क्षये)। “अश्व” शब्द मन के लिए, तथा “गो” शब्द इन्द्रियों के लिए भी प्रयुक्त होता है। इसलिए यहाँ यह भी अभिप्रेत है कि तू तो मन का भी स्वामी है, परन्तु इन्द्रियों से खण्डित हुआ जा रहा है।]
विषय
वीर सेना और गृहस्थ में स्त्री का वर्णन।
भावार्थ
हे पुरुष ! (अश्वस्य वारः) अश्व के बाल और (गोशफः) गौ का खुर (ते) तुझे प्राप्त हो। अर्थात् चवर और गौओं के चरण अर्थात् गो सम्पत्ति दोनों प्राप्त हों। हे राजन् ! तुझे (अश्वन्य वारः) अश्वारोहीगण का शत्रुवारण करने वाला बल और (गोशफः च) वाणी के संघ और भूमियों के संघ (ते) तुझे प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथ ऐतशप्रलापः॥ ऐतश ऋषिः। अग्नेरायुर्निरूपणम्॥ अग्नेरायुर्यज्ञस्यायात यामं वा षट्सप्ततिसंख्याकपदात्मकं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prajapati
Meaning
Warrior of horse and under the hoof of a cow, crushed by the material world?
Translation
The man mounting on horse has no use in the stall of cows.
Translation
The man mounting on horse has no use in the stall of cows.
Translation
Who enjoys these juices?
Footnote
This sukta explains that the souls enjoy the benefits of Prakriti under the guidance of God, the Lord of all.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(अश्वस्य) तुरङ्गस्य (वारः) वारयिता। आरूढः (गोशपद्यके) गो+शीङ् शयने-ड+पद-यत्, स्वार्थे कन्। गोशयनस्थाने। गोष्ठे ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
মনুষ্যপ্রয়ত্নোপদেশঃ
भाषार्थ
(অশ্বস্য বারঃ) অশ্বারোহী [ঘোড়া নেওয়ার জন্য] (গোশপদ্যকে) গরুর শয়ন স্থানে [ব্যর্থ হয়] ।।১৮॥
भावार्थ
সেবিকা অর্থাৎ উচিত/উপযুক্ত কর্মে নিয়োজিত বুদ্ধি তীব্র হয়, অশ্বারোহী উত্তম ঘোড়ার সন্ধান পায় আস্তাবলে/অশ্বশালায়, গোশালায় নয়॥১৭, ১৮॥
भाषार्थ
হে জীবাত্মন্! তুমি তো (অশ্বস্য) অশ্বকে (বারঃ) নিয়ন্ত্রিতকারী অশ্বারোহী, কিন্তু (গোশপদ্যকে) গাভীর খুর দ্বারা পিষ্ট হচ্ছো।
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