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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
सूक्त - अग्नि
देवता - त्रिपदा निचृत गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
उप॒ द्यामुप॑वेत॒समव॑त्तरो न॒दीना॑म्। अग्ने॑ पि॒त्तम॒पाम॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । द्याम् । उप॑ । वे॒त॒सम् । अव॑त्ऽतर: । न॒दीना॑म् । अग्ने॑ । पि॒त्तम् । अ॒पाम् । अ॒सि॒ ॥३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
उप द्यामुपवेतसमवत्तरो नदीनाम्। अग्ने पित्तमपामसि ॥
स्वर रहित पद पाठउप । द्याम् । उप । वेतसम् । अवत्ऽतर: । नदीनाम् । अग्ने । पित्तम् । अपाम् । असि ॥३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्नि! तू (द्याम् उप अवत्) द्युलोक में उपस्थित है। (वेतसम्) बेंत आदि काष्ठों में (उप अवत्) उपस्थित है, (नदीनाम्) नदियों की (तरः) निचली भूमि में प्लुतियों के साथ गिरते प्रवाहों में (अवत्) उपस्थित है। तू (अपाम्) जलों का (पित्तम्) तेज (असि) है, या जलों का दिया हुआ है। सम्बोधन कवित्वशैली का है।
टिप्पणी -
[मन्त्र में अग्नि के स्थान दर्शाएं हैं। वह द्युलोक के नक्षत्रों तारागणों और सूर्य आदि में चमक रही है। बेंत आदि, जो कि जल में पैदा होते हैं, उन में भी अग्नि विद्यमान है। नदियों के प्रवाह निचली भूमि पर जब वेग से गिरते हैं, उन जलप्रपातों में भी अग्नि छिपी पड़ी रहती है, क्योंकि जलप्रपातों से विद्युत् उत्पन्न की जा सकती है। अग्नि मेघीय जलों में भी विद्युतरूप में विद्यमान है। पित्तम् = पित्त (Bile) गर्म होती है, इस लिये अग्नि को जलों का पित्त कहा है। अथवा पित्त = अपि + दा + क्त, यथा प्रत्तम्, अर्थात् जलों से अग्नि प्राप्त होती है। "अपि" के प्रकार का लोप, यथा- पिधानं, पिधेहि में। तरः = प्लवने]