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अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - सतः पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
प्र॑जान॒त्यघ्न्ये जीवलो॒कं दे॒वानां॒ पन्था॑मनुसं॒चर॑न्ती। अ॒यं ते॒गोप॑ति॒स्तं जु॑षस्व स्व॒र्गं लो॒कमधि॑ रोहयैनम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽजा॒न॒ती । अ॒घ्न्ये॒ । जी॒व॒ऽलो॒कम् । दे॒वाना॑म् । पन्था॑म् । अ॒नु॒ऽसं॒चर॑न्ती ।अ॒यम् । ते॒ । गोऽप॑ति: । तम् । जु॒ष॒स्व॒ । स्व॒:ऽगम् । लो॒कम् । अधि॑ । रो॒ह॒य॒ । ए॒न॒म् ॥३.४॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजानत्यघ्न्ये जीवलोकं देवानां पन्थामनुसंचरन्ती। अयं तेगोपतिस्तं जुषस्व स्वर्गं लोकमधि रोहयैनम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽजानती । अघ्न्ये । जीवऽलोकम् । देवानाम् । पन्थाम् । अनुऽसंचरन्ती ।अयम् । ते । गोऽपति: । तम् । जुषस्व । स्व:ऽगम् । लोकम् । अधि । रोहय । एनम् ॥३.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(अघ्न्ये) हे अहन्तव्ये विधवे ! तू (जीवलोकम्) जीवित लोगों के रीति-रिवाज को (प्रजानती) जानती हुई, और (देवानाम्) देवकोटि के लोगों के (पन्थाम्) मार्ग पर (अनु संचरन्ती) निरन्तर या तदनुकूल चलती हुई, (तम्) उस का (जुषस्व) प्रीति से सेवन कर, जो कि (अयम्) यह (ते गोपतिः) तेरी इन्द्रियों का पति बना है। और तू (एनम्) इस मृत-पति को (स्वर्ग लोकम्) स्वर्ग लोक की ओर जाने के लिये (अधि रोहय) चिताधिरूढ़ करने की स्वीकृति दे।
टिप्पणी -
[विधवा सदा अघ्न्या है। मृतपति के पश्चात् उसे जीवित रहने का पूर्ण अधिकार है। देवकोटि के लोगों का मार्ग यही है। विधवा चाहे तो नियोग या पुनर्विवाह कर सकती है। यह मार्ग देवों द्वारा अनुमोदित है। स्वर्ग = स्वर्ग नाम सुखविशेषभोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है (सत्यार्थ प्रकाश, स्वमन्तव्यामन्तव्य (नं० ४२)। अर्थात् भावी जन्म में सुख भोगने के लिये। अथवा इस नवपति को तू स्वर्गीय सुख पर आरूढ़ कर, निज प्रेममय व्यवहारों द्वारा]