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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 29
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अ॒पां पृ॒ष्ठम॑सि॒ योनि॑र॒ग्नेः स॑मु॒द्रम॒भितः॒ पिन्व॑मानम्। वर्ध॑मानो म॒हाँ२ऽआ च॒ पुष्क॑रे दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थस्व॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। पृ॒ष्ठम्। अ॒सि॒। योनिः॑। अ॒ग्नेः। स॒मु॒द्रम्। अ॒भितः॑। पिन्व॑मानम्। वर्ध॑मानः। म॒हान्। आ। च॒। पुष्क॑रे। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒स्व॒ ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाम्पृष्ठमसि योनिरग्नेः समुद्रमभितः पिन्वमानम् । वर्धमानो महाँ आ च पुष्करे दिवो मात्रया वरिम्णा प्रथस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। पृष्ठम्। असि। योनिः। अग्नेः। समुद्रम्। अभितः। पिन्वमानम्। वर्धमानः। महान्। आ। च। पुष्करे। दिवः। मात्रया। वरिम्णा। प्रथस्व॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 29
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जिस कारण (अग्नेः) सर्वत्र अभिव्याप्त बिजुली रूप अग्नि के (योनिः) संयोग-वियोगों के जानने (महान्) पूजनीय (वर्धमानः) विद्या तथा क्रिया की कुशलता से नित्य बढ़ने वाले आप (असि) हैं। इसलिये (अभितः) सब ओर से (पिन्वमानम्) जल वर्षाते हुए (अपाम्) जलों के (पृष्ठम्) आधारभूत (पुष्करे) अन्तरिक्ष में वर्त्तमान (दिवः) दीप्ति के (मात्रया) विभाग से बढ़े हुए (समुद्रम्) अच्छे प्रकार जिस में ऊपर को जल उठते हैं, उस समुद्र (च) और वहां के सब पदार्थों को जान के (वरिम्णा) बहुत्व के साथ (आप्रथस्व) अच्छे प्रकार सुखों को विस्तार करने वाले हूजिये॥२९॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! तुम लोग पृथिवी आदि स्थूल पदार्थों में बिजुली जिस प्रकार वर्त्तमान है, वैसे ही जलों में भी है, ऐसा समझ और उससे उपकार ले के बड़े-बड़े विस्तारयुक्त सुखों को सिद्ध करो॥२९॥

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