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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 80
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठ ऋषिः देवता - अध्यापकोपदेशकौ देवते छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    योऽअ॒स्मभ्य॑मराती॒याद्यश्च॑ नो॒ द्वे॑षते॒ जनः॑। निन्दा॒द्योऽअ॒स्मान् धिप्सा॑च्च॒ सर्वं॒ तं भ॑स्म॒सा कु॑रु॥८०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। अ॒स्मभ्य॑म्। अ॒रा॒ती॒यात्। अ॒रा॒ति॒यादित्य॑राति॒ऽयात्। यः। च॒। नः॒। द्वेष॑ते। जनः॑। निन्दा॑त्। यः। अ॒स्मान्। धिप्सा॑त्। च॒। सर्व॑म्। तम्। भ॒स्म॒सा। कु॒रु॒ ॥८० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योऽअस्मभ्यमरातीयाद्यश्च नो द्वेषते जनः । निन्दाद्योऽअस्मान्धिप्साच्च सर्वन्तम्भस्मसा कुरु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। अस्मभ्यम्। अरातीयात्। अरातियादित्यरातिऽयात्। यः। च। नः। द्वेषते। जनः। निन्दात्। यः। अस्मान्। धिप्सात्। च। सर्वम्। तम्। भस्मसा। कुरु॥८०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 80
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    पदार्थ -
    हे सभा और सेना के स्वामिन्! आप (यः) जो (जनः) मनुष्य (अस्मभ्यम्) हम धर्मात्माओं के लिये (अरातीयात्) शत्रुता करे (यः) जो (नः) हमारे साथ (द्वेषते) दुष्टता करे (च) और हमारी (निन्दात्) निन्दा करे (यः) जो (अस्मान्) हम को (धिप्सात्) दम्भ दिखावे (च) और हमारे साथ छल करे (तम्) उस (सर्वम्) सब को (भस्मसा) जला के सम्पूर्ण भस्म (कुरु) कीजिये॥८०॥

    भावार्थ - अध्यापक, उपदेशक और राजपुरुषों को चाहिये कि पढ़ाने, शिक्षा, उपदेश और दण्ड से निरन्तर विरोध का विनाश करें॥८०॥

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