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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 37
    ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी बृहती स्वरः - मध्यमः
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    सꣳसी॑दस्व म॒हाँ२ऽअ॑सि॒ शोच॑स्व देव॒वीत॑मः। वि धू॒मम॑ग्नेऽअरु॒षं मि॑येध्य सृ॒ज प्र॑शस्त दर्श॒तम्॥३७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। सी॒द॒स्व॒। म॒हान्। अ॒सि॒। शोच॑स्व। दे॒व॒वीत॑म॒ इति॑ देव॒ऽवीत॑मः। वि। धू॒मम्। अ॒ग्ने॒। अ॒रु॒षम्। मि॒ये॒ध्य॒। सृ॒ज। प्र॒श॒स्तेति॑ प्रऽशस्त। द॒र्श॒तम् ॥३७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सँ सीदस्व महाँऽअसि शोचस्व देववीतमः । वि धूममग्नेऽअरुषम्मियेध्य सृज प्रशस्त दर्शतम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। सीदस्व। महान्। असि। शोचस्व। देववीतम इति देवऽवीतमः। वि। धूमम्। अग्ने। अरुषम्। मियेध्य। सृज। प्रशस्तेति प्रऽशस्त। दर्शतम्॥३७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 37
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    पदार्थ -
    हे (प्रशस्त) प्रशंसा के योग्य (मियेध्य) दुष्टों को पृथक् करने वाले (अग्ने) तेजस्वी विद्वन्! (देववीतमः) विद्वानों को अत्यन्त इष्ट आप (विधूमम्) निर्मल (दर्शतम्) देखने योग्य (अरुषम्) सुन्दर रूप को (सृज) सिद्ध कीजिये तथा (शोचस्व) पवित्र हूजिये। जिस कारण आप (महान्) बड़े-बड़े गुणों से युक्त विद्वान् (असि) हैं, इसलिए पढ़ाने की गद्दी पर (संसीदस्व) अच्छे प्रकार स्थित हूजिये॥३७॥

    भावार्थ - जो मनुष्य विद्वानों का अत्यन्त प्रिय, अच्छे रूप, गुण और लावण्य से युक्त, पवित्र, बड़ा धर्मात्मा, आप्त विद्वान् होवे, वही शास्त्रों के पढ़ाने को समर्थ होता है॥३७॥

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