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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 44
    ऋषिः - त्रित ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    स्थि॒रो भ॑व वी॒ड्वङ्गऽआ॒शुर्भ॑व वा॒ज्यर्वन्। पृ॒थुर्भ॑व सु॒षद॒स्त्वम॒ग्नेः पु॑रीष॒वाह॑णः॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्थि॒रः। भ॒व॒। वी॒ड्व᳖ङ्ग॒ इति॑ वी॒डुऽअ॑ङ्गः। आ॒शुः। भ॒व॒। वा॒जी। अ॒र्व॒न्। पृ॒थुः। भ॒व॒। सु॒षदः॑। सु॒सद॒ इति॑ सु॒ऽसदः॑। त्वम्। अ॒ग्नेः। पु॒री॒ष॒वाह॑णः। पु॒री॒ष॒वाह॑न॒ इति॑ पुरीष॒ऽवाह॑नः ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्थिरो भव वीड्वङ्गऽआशुर्भव वाज्यर्वन् । पृथुर्भव सुषदस्त्वमग्नेः पुरीषवाहणः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्थिरः। भव। वीड्वङ्ग इति वीडुऽअङ्गः। आशुः। भव। वाजी। अर्वन्। पृथुः। भव। सुषदः। सुसद इति सुऽसदः। त्वम्। अग्नेः। पुरीषवाहणः। पुरीषवाहन इति पुरीषऽवाहनः॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 44
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    पदार्थ -
    हे (अर्वन्) विज्ञानयुक्त पुत्र! तू विद्याग्रहण के लिये (स्थिरः) दृढ़ (भव) हो (वाजी) नीति को प्राप्त होके (वीड्वङ्गः) दृढ़ अति बलवान् अवयवों से युक्त (आशुः) शीघ्र कर्म करने वाला (भव) हो (त्वम्) तू (अग्नेः) अग्निसंबन्धी (सुषदः) सुन्दर व्यवहारों में स्थित और (पुरीषवाहणः) पालन आदि शुभ कर्मों को प्राप्त कराने वाला (पृथुः) सुख का विस्तार करने हारा (भव) हो॥४४॥

    भावार्थ - हे अच्छे सन्तानो! तुम को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य सेवन से शरीर का बल और विद्या तथा अच्छी शिक्षा से आत्मा का बल पूर्ण दृढ़ कर स्थिरता से रक्षा करो और आग्नेय आदि अस्त्रविद्या से शत्रुओं का विनाश करो। इस प्रकार माता-पिता अपने सन्तानों को शिक्षा करें॥४४॥

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