यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 32
ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
5
सुरा॑वन्तं बर्हि॒षद॑ꣳ सु॒वीरं॑ य॒ज्ञꣳ हि॑न्वन्ति महि॒षा नमो॑भिः। दधा॑नाः॒ सोमं॑ दि॒वि दे॒वता॑सु॒ मदे॒मेन्द्रं॒ यज॑मानाः स्व॒र्काः॥३२॥
स्वर सहित पद पाठसुरा॑वन्त॒मिति॒ सुरा॑ऽवन्तम्। ब॒र्हि॒षद॑म्। ब॒र्हि॒षद॒मिति॑ बर्हि॒ऽसद॑म्। सु॒वीर॒मिति॑ सु॒ऽवीर॑म्। य॒ज्ञम्। हि॒न्व॒न्ति॒। म॒हि॒षाः। नमो॑भि॒रिति॒ नमः॑ऽभिः। दधा॑नाः। सोम॑म्। दि॒वि। दे॒वता॑सु। मदे॑म। इन्द्र॑म्। यज॑मानाः। स्व॒र्का इति॑ सुऽअ॒र्काः ॥३२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुरावन्तम्बर्हिषदँ सुवीरँयज्ञँ हिन्वन्ति महिषा नमोभिः । दधानाः सोमन्दिवि देवतासु मदेमेन्द्रँयजमानाः स्वर्काः ॥
स्वर रहित पद पाठ
सुरावन्तमिति सुराऽवन्तम्। बर्हिषदम्। बर्हिषदमिति बर्हिऽसदम्। सुवीरमिति सुऽवीरम्। यज्ञम्। हिन्वन्ति। महिषाः। नमोभिरिति नमःऽभिः। दधानाः। सोमम्। दिवि। देवतासु। मदेम। इन्द्रम्। यजमानाः। स्वर्का इति सुऽअर्काः॥३२॥
विषय - फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे मनुष्यो! जो (महिषाः) महान् पूजनीय (स्वर्काः) उत्तम अन्न आदि पदार्थों से युक्त (यजमानाः) यज्ञ करने वाले विद्वान् लोग (नमोभिः) अन्नादि से (सुरावन्तम्) उत्तम सोमरस युक्त (बर्हिषदम्) जो प्रशस्त आकाश में स्थिर होता उस (सुवीरम्) उत्तम शरीर तथा आत्मा के बल से युक्त वीरों की प्राप्ति करनेहारे (यज्ञम्) यज्ञ को (हिन्वन्ति) बढ़ाते हैं, वे और (दिवि) शुद्ध व्यवहारों में तथा (देवतासु) विद्वानों में (सोमम्) ऐश्वर्य्य और (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्ययुक्त जन को (दधानाः) धारण करते हुए हम लोग (मदेम) आनन्दित हों॥३२॥
भावार्थ - जो मनुष्य अन्नादि ऐश्वर्य का सञ्चय कर उससे विद्वानों को प्रसन्न और सत्य विद्याओं में शिक्षा ग्रहण करके सब के हितैषी हों, वे इस संसार में पुत्र-स्त्री के आनन्द को प्राप्त हों॥३२॥
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