यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 28
ऋषिः - देवा ऋषयः
देवता - सङ्ग्रामादिविदात्मा देवता
छन्दः - भुरिगाकृतिः, आर्ची बृहती
स्वरः - पञ्चमः, मध्यमः
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वाजा॑य॒ स्वाहा॑ प्रस॒वाय॒ स्वाहा॑पि॒जाय॒ स्वाहा॒ क्रत॑वे॒ स्वाहा॒ वस॑वे॒ स्वाहा॑ह॒र्पत॑ये॒ स्वाहाह्ने॑ मु॒ग्धाय॒ स्वाहा॑ मु॒ग्धाय॒ वैनꣳशि॒नाय॒ स्वाहा॑ विन॒ꣳशिन॑ऽआन्त्याय॒नाय॒ स्वाहान्त्या॑य भौव॒नाय॒ स्वाहा॒ भुव॑नस्य॒ पत॑ये॒ स्वाहाधि॑पतये॒ स्वाहा॑ प्र॒जाप॑तये॒ स्वाहा॑। इ॒यं ते॒ राण्मि॒त्राय॑ य॒न्तासि॒ यम॑नऽऊ॒र्जे त्वा॒ वृष्ट्यै॑ त्वा प्र॒जानां॒ त्वाधि॑पत्याय॥२८॥
स्वर सहित पद पाठवाजा॑य। स्वाहा॑। प्र॒स॒वायेति॑ प्रऽस॒वाय॑। स्वाहा॑। अ॒पि॒जाय॑। स्वाहा॑। क्रत॑वे। स्वाहा॑। वस॑वे। स्वाहा॑। अ॒ह॒र्पत॑ये। स्वाहा॑। अह्ने॑। मु॒ग्धाय॑ स्वाहा॑। मु॒ग्धाय॑। वै॒न॒ꣳशि॒नाय॑। स्वाहा॑। वि॒न॒ꣳशिन॒ इति॑ विन॒ꣳशिने॑। आ॒न्त्या॒य॒नाय॑। स्वाहा॑। आन्त्या॑य। भौ॒व॒नाय॑। स्वाहा॑। भुव॑नस्य। पत॑ये। स्वाहा॑। अधि॑पतय॒ इत्यधि॑ऽपतये। स्वाहा॑। प्र॒जाप॑तय॒ इति॑ प्र॒जाऽप॑तये। स्वाहा॑। इ॒यम्। ते॒। राट्। मि॒त्राय॑। य॒न्ता। अ॒सि॒। यम॑नः। ऊ॒र्जे। त्वा॒। वृष्ट्यै॑। त्वा॒। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म्। त्वा॒। आधि॑पत्या॒येत्याधि॑ऽपत्याय ॥२८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजाय स्वाहा प्रसवाय स्वाहापिजाय स्वाहा क्रतवे स्वाहा वसवे स्वाहाहर्पतये स्वाहाह्ने स्वाहा मुग्धाय स्वाहा मुग्धाय वैनँशिनाय स्वाहाविनँशिन आन्त्यायनाय स्वाहान्त्याय भौवनाय स्वाहा भुवनस्य पतये स्वाहाधिपतये स्वाहा प्रजापतये स्वाहा । इयन्ते राण्मित्राय यन्तासि यमन ऊर्जे त्वा वृष्ट्यै त्वा प्रजानान्त्वाधिपत्याय ॥
स्वर रहित पद पाठ
वाजाय। स्वाहा। प्रसवायेति प्रऽसवाय। स्वाहा। अपिजाय। स्वाहा। क्रतवे। स्वाहा। वसवे। स्वाहा। अहर्पतये। स्वाहा। अह्ने। मुग्धाय स्वाहा। मुग्धाय। वैनꣳशिनाय। स्वाहा। विनꣳशिन इति विनꣳशिने। आन्त्यायनाय। स्वाहा। आन्त्याय। भौवनाय। स्वाहा। भुवनस्य। पतये। स्वाहा। अधिपतय इत्यधिऽपतये। स्वाहा। प्रजापतय इति प्रजाऽपतये। स्वाहा। इयम्। ते। राट्। मित्राय। यन्ता। असि। यमनः। ऊर्जे। त्वा। वृष्टयै। त्वा। प्रजानामिति प्रऽजानाम्। त्वा। आधिपत्यायेत्याधिऽपत्याय॥२८॥
विषयः - अथ कीदृशी वाक् स्वीकार्य्येत्याह॥
अन्वयः - येन विदुषा वाजाय स्वाहा प्रसवाय स्वाहाऽपिजाय स्वाहा क्रतवे स्वाहा वसवे स्वाहाऽहर्पतये स्वाहाऽह्ने मुग्धाय स्वाहा मुग्धाय वैनंशिनाय स्वाहा विनंशिन आन्त्यायनाय स्वाहाऽऽन्त्याय भौवनाय स्वाहा भुवनस्य पतये स्वाहाऽधिपतये स्वाहा प्रजापतये स्वाहा स्वीक्रियते यस्य ते तवेयं राडस्ति यो यमनस्त्वं मित्राय यन्तासि तं त्वा त्वामूर्जे त्वा वृष्ट्यै त्वा प्रजानामाधिपत्याय च वयं स्वीकुर्वीमहि॥२८॥
पदार्थः -
(वाजाय) सङ्ग्रामाय (स्वाहा) सत्या क्रिया (प्रसवाय) ऐश्वर्याय सन्तानोत्पादनाय वा (स्वाहा) पुरुषार्थबलयुक्ता सत्या वाक् (अपिजाय) स्वीकाराय (स्वाहा) साध्वी क्रिया (क्रतवे) विज्ञानाय (स्वाहा) योगाभ्यासादिक्रिया (वसवे) वासाय (स्वाहा) धनप्रापिका क्रिया (अहर्पतये) अह्नां पालकाय (स्वाहा) कालविज्ञापिता क्रिया (अह्ने) दिनाय (मुग्धाय) प्रापितमोहाय (स्वाहा) वैराग्ययुक्ता क्रिया (मुग्धाय) मोहं प्राप्ताय (वैनंशिनाय) विनष्टुं शीलं यस्य तस्यायं बोधस्तस्मै (स्वाहा) सत्योपदेशिका वाक् (विनंशिने) विनष्टुं शीलाय (आन्त्यायनाय) अन्ते भवमयनं यस्य स आन्त्यायनः स एव तस्मै (स्वाहा) सत्या वाणी (आन्त्याय) अन्ते भवायान्त्याय (भौवनाय) भुवनानामयं सम्बन्धी तस्मै (स्वाहा) सुष्ठूपदेशः (भुवनस्य) भवन्ति भूतानि यस्मिन् यस्य (पतये) स्वामिने (स्वाहा) उत्तमा वाक् (अधिपतये) पतीनां पालिकानामधिष्ठात्रे (स्वाहा) राजव्यवहारसूचिका क्रिया (प्रजापतये) प्रजारक्षकाय (स्वाहा) राजधर्मद्योतिका नीतिः (इयम्) नीतिः (ते) तव (राट्) या राजते सा (मित्राय) सुहृदे (यन्ता) नियामकः (असि) (यमनः) यस्सद्गुणान् यच्छति सः (ऊर्ज्जे) पराक्रमाय (त्वा) त्वाम् (वृष्ट्यै) वर्षणाय (त्वा) त्वाम् (प्रजानाम्) पालनीयानाम् (त्वा) त्वाम् (आधिपत्याय) अधिष्ठातृत्वाय॥२८॥
भावार्थः - ये मनुष्या धर्म्यवाक् क्रियाभ्यां सह प्रवर्त्तन्ते, ते सुखानि लभन्ते, ये जितेन्द्रियास्तेराज्यं रक्षितुं शक्नुवन्ति॥२८॥
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