Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 22
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    6

    श॒तमिन्नु श॒रदो॒ऽअन्ति॑ देवा॒ यत्रा॑ नश्च॒क्रा ज॒रसं॑ त॒नूना॑म्।पु॒त्रासो॒ यत्र॑ पि॒तरो॒ भव॑न्ति॒ मा नो॑ म॒ध्या री॑रिष॒तायु॒र्गन्तोः॑॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम्। इत्। नु। श॒रदः॑। अन्ति॑। दे॒वाः॒। यत्र॑। नः॒। च॒क्र। ज॒रस॑म्। त॒नूना॑म्। पु॒त्रासः॑। यत्र॑। पि॒तरः॑। भव॑न्ति। मा। नः॒। म॒ध्या। री॒रि॒ष॒त॒। रि॒रि॒ष॒तेति॑ रिरिषत। आयुः॑। गन्तोः॑ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतमिन्नु शरदोऽअन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसन्तनूनाम् । पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शतम्। इत्। नु। शरदः। अन्ति। देवाः। यत्र। नः। चक्र। जरसम्। तनूनाम्। पुत्रासः। यत्र। पितरः। भवन्ति। मा। नः। मध्या। रीरिषत। रिरिषतेति रिरिषत। आयुः। गन्तोः॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 22
    Acknowledgment

    भाषार्थ -
    हे (देवा:) विद्वानो ! आपके (अन्ति) समीप में स्थित (नः) हमारे (यत्र) जिससे (तनूनाम्) शरीरों की (जरसम्) जरावस्थाएँऔर(शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतु पर्यन्त हों, उसे (नु) शीघ्र (चक्र) सिद्ध करें। (यत्र) जिससे (पुत्रासः) वृद्धावस्था जन्य दुःख से रक्षा करने वाले (इत्) ही (पितरः) पितरों के तुल्य होते हैं, उसे (नः) हमारे (गन्तोः) मार्ग, (आयु:) जीवन एवं (मध्या) पूर्ण आयु भोग के मध्य में (मा, रीरिषत) मत नष्ट करो ॥ २५ । २२ ॥

    भावार्थ - मनुष्य–-दीर्घ, अड़तालीस वर्षप्रमाण के ब्रह्मचर्य का सदा सेवन करें। जब सौ वर्ष आयु व्यतीत हो जाए तभी शरीरों की जरा अवस्था हो। जिससे पितरों की विद्यमानता में पुत्र भी पितर हो जायें। यदि ब्रह्मचर्य के साथ न्यून से न्यून पच्चीस वर्ष व्यतीत हो जाएँ तत्पश्चात् अति मैथुन से जो वीर्य का क्षय करते हैं तो वे रोगी, निर्बुद्धि होकर दीर्घायु कभी नहीं होते ॥२२॥

    भाष्यसार - हमारे लिए कौन क्याकरें-- हमारे लिए विद्वान् लोग ऐसा करें कि उनके समीप रहते हुए हमारे शरीरों की जरा अवस्था सौ शरद् ऋतु के पश्चात् हो। तात्पर्य यह है कि मनुष्य ४८ अड़तालीस वर्ष पर्यन्त दीर्घ ब्रह्मचर्य का सेवन करें। जब सौ वर्ष की आयु व्यतीत हो जावे तभी शरीर की जरा अवस्था आवे। वृद्धावस्था से उत्पन्नदुःख से त्राण करने वाले पुत्र भी पितर बन जावें । वे हमारे जीवन काल में ही नष्ट न हों। जो मनुष्य कमसे कम पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य सेवन करने के पश्चात् अति मैथुन से वीर्य का क्षय करते हैं वे रोगी निर्बुद्धि हो कर कभी दीर्घायु नहीं होते ॥ २५।२२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top