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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 8
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - इन्द्रादयो देवताः छन्दः - निचृदभिकृतिः स्वरः - ऋषभः
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    इन्द्र॑स्य क्रो॒डोऽदि॑त्यै पाज॒स्यं दि॒शां ज॒त्रवोऽदि॑त्यै भ॒सज्जी॒मूता॑न् हृदयौप॒शेना॒न्तरि॑क्षं पुरी॒तता॒ नभ॑ऽउद॒र्येण चक्रवा॒कौ मत॑स्नाभ्यां॒ दिवं॑ वृ॒क्काभ्यां॑ गि॒रीन् प्ला॒शिभि॒रुप॑लान् प्ली॒ह्ना व॒ल्मीका॑न् क्लो॒मभि॑र्ग्लौ॒भिर्गुल्मा॑न् हि॒राभिः॒ स्रव॑न्तीर्ह्र॒दान् कु॒क्षिभ्या॑ समु॒द्रमु॒दरे॑ण वैश्वान॒रं भस्म॑ना॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य। क्रो॒डः। अदि॑त्यै। पा॒ज॒स्य᳖म्। दि॒शाम्। ज॒त्रवः॑। अदि॑त्यै। भ॒सत्। जी॒मूता॑न्। हृ॒द॒यौ॒प॒शेन॑। अ॒न्तरि॑क्षम्। पु॒री॒तता॑। पु॒रि॒ततेति॑ पुरि॒ऽतता॑। नभः॑। उ॒द॒र्ये᳖ण। च॒क्र॒वा॒काविति॑ चक्रऽवा॒कौ। मत॑स्नाभ्याम्। दिव॑म्। वृ॒क्काभ्या॑म्। गि॒रीन्। प्ला॒शिभि॒रिति॑ प्ला॒शिऽभिः॑। उप॑लान्। प्ली॒ह्ना। व॒ल्मीका॑न्। क्लो॒मभि॒रिति॑ क्लो॒मऽभिः॑। ग्लौ॒भिः। गुल्मा॑न्। हि॒राभिः॑। स्रव॑न्तीः। ह्न॒दान्। कु॒क्षिभ्या॒मिति॑ कु॒क्षिऽभ्या॑म्। स॒मु॒द्रम्। उ॒दरे॑ण। वै॒श्वा॒न॒रम्। भस्म॑ना ॥८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य क्रीडोदित्यै पाजस्यन्दिशाञ्जत्रवोदित्यै भसज्जीमूतान्हृदयौपशेनान्तरिक्षम्पुरीतता नभऽउदर्येण चक्रवाकौ मतस्नाभ्यान्दिवँवृक्काभ्याङ्गिरीन्प्लाशिभिरुपलान्प्लीह्ना वल्मीकान्क्लोमभिर्ग्लाभिर्गुल्मान्हिराभिः स्रवन्तीह््र्रदान्कुक्षिभ्याँ समुद्रमुदरेण वैश्वानरम्भस्मना ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। क्रोडः। अदित्यै। पाजस्यम्। दिशाम्। जत्रवः। अदित्यै। भसत्। जीमूतान्। हृदयौपशेन। अन्तरिक्षम्। पुरीतता। पुरिततेति पुरिऽतता। नभः। उदर्येण। चक्रवाकाविति चक्रऽवाकौ। मतस्नाभ्याम्। दिवम्। वृक्काभ्याम्। गिरीन्। प्लाशिभिरिति प्लाशिऽभिः। उपलान्। प्लीह्ना। वल्मीकान्। क्लोमभिरिति क्लोमऽभिः। ग्लौभिः। गुल्मान्। हिराभिः। स्रवन्तीः। ह्नदान्। कुक्षिभ्यामिति कुक्षिऽभ्याम्। समुद्रम्। उदरेण। वैश्वानरम्। भस्मना॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 8
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    भाषार्थ -
    हे मनुष्यो ! तुम प्रयत्न से--(इन्द्रस्य) विद्युत् का (क्रोड:) डूबना, (अदित्यै) पृथिवी के (पाजस्यम्) अन्नों की श्रेष्ठता, (दिशाम्) दिशाओं की (जत्रवः) सन्धियाँ और (अदित्यै) प्रकाश की (भसत्) दीप्ति को जानो।और--(जीमूतान्) मेघों को (हृदयौपशेन) हृदय में शयन करने वाले जीव से; (पुरीतता) हृदय में स्थित पुरीतत् नामक नाड़ी से (अन्तरिक्षम्) आकाश को; (उदर्येण) उदर में विद्यमान पदार्थ से (नभः) जल को; (चक्रवाकौ) चकवा-चकवी पक्षियों को (मतस्नाभ्याम्) ग्रीवा के दोनों भागों से; (दिवम्) प्रकाश को (वृक्काभ्याम्) कुक्षिस्थ मांस के गोलकों से, (गिरीन्) पहाड़ों को (प्लाशिभिः) अत्यन्त भोजन क्रियाओं से, (उपलान्) मेघों को (प्लीहा) हृदय में स्थित प्लीहा नामक अंग से, (वल्मीकान्) मार्गों को (क्लोमभिः) गीला करने और (ग्लौभिः) हर्ष के क्षय से, (गुल्मान्) दक्षिण भाग में उदरस्थ गुल्म नामक अंगों को (हिराभिः) वृद्धि से, (स्रवन्तीः) नदियों एवं (ह्रदान्) जलाशय=तालाबों को (कुक्षिभ्याम्) कोखों से, (समुद्रम्) समुद्र को (उदरेण) उदर से; (भस्मना) दग्धशेष निस्सार भस्म से, (वैश्वानरम्) सब के प्रकाशक अग्नि को तुम जानो ॥ २५ । ८ ॥

    भावार्थ - यदि मनुष्य अनेक विद्या-बोधों को प्राप्त करके, युक्त आहार-विहार से सब अंगोंको पुष्ट कर, रोगों का निवारण करें तो वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हों ॥ २५ । ८ ॥

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