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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 60
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - दम्पती देवते छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    भव॑तन्नः॒ सम॑नसौ॒ सचे॑तसावरे॒पसौ॑। मा य॒ज्ञꣳ हि॑ꣳसिष्टं॒ मा य॒ज्ञप॑तिं जातवेदसौ शि॒वौ भ॑वतम॒द्य नः॑॥६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भव॑तम्। नः॒। सम॑नसा॒विति॒ सऽम॑नसौ। सचे॑तसा॒विति॒ सऽचे॑तसौ। अ॒रे॒पसौ॑। मा। य॒ज्ञम्। हि॒ꣳसि॒ष्ट॒म्। मा। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। जा॒त॒वे॒द॒सा॒विति॑ जातऽवेदसौ। शि॒वौ। भ॒व॒त॒म्। अ॒द्य। नः॒ ॥६० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भवतन्नः समनसौ सचेतसावरेपसौ । मा यज्ञँ हिँसिष्टम्मा यज्ञपतिञ्जातवेदसौ शिवौ भवतमद्य नः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    भवतम्। नः। समनसाविति सऽमनसौ। सचेतसाविति सऽचेतसौ। अरेपसौ। मा। यज्ञम्। हिꣳसिष्टम्। मा। यज्ञपतिमिति यज्ञऽपतिम्। जातवेदसाविति जातऽवेदसौ। शिवौ। भवतम्। अद्य। नः॥६०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 60
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    भावार्थ - स्री-पुरुषांनी सत्य उपदेश करणाऱ्या, सर्व विद्यांनी युक्त, प्रगल्भ, निष्कपट, धर्मात्मा, सत्यप्रिय अशा पुरुषांची सदैव प्रार्थना करावी व सेवा करावी. विद्वान लोकांनी सर्वांना उपदेश करून धर्माचरणी बनवावे.

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