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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 79
    ऋषिः - भिषगृषिः देवता - वैद्यो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒श्व॒त्थे वो॑ नि॒षद॑नं प॒र्णे वो॑ वस॒तिष्कृ॒ता। गो॒भाज॒ऽइत् किला॑सथ॒ यत् स॒नव॑थ॒ पूरु॑षम्॥७९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒श्व॒त्थे। वः॒। नि॒षद॑नम्। नि॒सद॑न॒मिति॑ नि॒ऽसद॑नम्। प॒र्णे। वः॒। व॒स॒तिः। कृ॒ता। गो॒भाज॒ इति॑ गो॒ऽभाजः॑। इत्। किल॑। अ॒स॒थ॒। यत्। स॒नव॑थ। पूरु॑षम्। पुरु॑ष॒मिति॒ पुरु॑षम् ॥७९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्वत्थे वो निषदनम्पर्णे वो वसतिष्कृता । गोभाजऽइत्किलासथ यत्सनवथ पूरुषम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्वत्थे। वः। निषदनम्। निसदनमिति निऽसदनम्। पर्णे। वः। वसतिः। कृता। गोभाज इति गोऽभाजः। इत्। किल। असथ। यत्। सनवथ। पूरुषम्। पुरुषमिति पुरुषम्॥७९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 79
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    भावार्थ - माणसांनी असा विचार करावा की, आपले शरीर अनित्य आहे व स्थिती परिवर्तनशील आहे त्यामुळे शरीर रोगापासून वाचवावे व धर्म, अर्थ, काम, मोक्षाचे अनुष्ठान करावे आणि अनित्य साधनांनी नित्य मोक्षाचे सुख प्राप्त करावे. जसे वृक्ष व तृण इत्यादी फळे, फुले, पाने, फांद्या इत्यादींनी सुशोभित दिसतात तसेच निरोगी शरीराने शोभायमान व्हावे.

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