यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - निचृत् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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तेजो॑ऽसि शु॒क्रम॒मृत॑मायु॒ष्पाऽआयु॑र्मे पाहि। दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्या॒माद॑दे॥१॥
स्वर सहित पद पाठतेजः॑। अ॒सि॒। शु॒क्रम्। अ॒मृत॑म्। आ॒यु॒ष्पाः। आ॒युः॒पा इत्या॑युः॒ऽपाः। आयुः॑। मे॒। पा॒हि॒। दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तेजोसि शुक्रममृतमायुष्पाऽआयुर्मे पाहि । देवस्य त्वा सवितुः प्रसवे श्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्यामाददे ॥
स्वर रहित पद पाठ
तेजः। असि। शुक्रम्। अमृतम्। आयुष्पाः। आयुःपा इत्यायुःऽपाः। आयुः। मे। पाहि। देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। आ। ददे॥१॥
विषय - प्रभु की धरोहर
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि तेजः असि=अपने जीवन को यज्ञमय बनाकर तू तेजस्वी बना है। (शुक्रम्) = वीर्यवान् हुआ है और अतएव (अमृतम्) = तू रोगरूप मृत्युओं का शिकार नहीं हुआ है। २. (आयुष्पा:) = इस प्रकार आधि-व्याधियों से अनाक्रान्त होकर तू अपने आयुष्य से धर्मरक्षा करनेवाला बना है। तू (आयुः मे पाहि) = मेरे द्वारा दिये हुए जीवन की रक्षा करना । इस जीवन को मेरी धरोहर समझना और इसे क्षीण व नष्ट न होने देना। ३. अब जीव प्रभु को उत्तर देता हुआ कहता है कि 'मैं आपके निर्देश को न भूलता हुआ इस आयुष्य के रक्षण के लिए [क] (त्वा सवितुः देवस्य प्रसवे) = तुझ प्रेरक देव की अनुज्ञा में ही प्रत्येक वस्तु का आददे-ग्रहण करता हूँ। ('आज्यं तौलस्य प्राशान') = घृत को तोलकर खाओ' इस आपके निर्देश के अनुसार मैं प्रत्येक पदार्थ को मात्रा में ही स्वीकार करता हूँ। [ख] (अश्विनो:) = प्राणापान के (बाहुभ्याम्) = प्रयत्नों से (आददे) = प्रत्येक वस्तु को लेता हूँ। बिना प्रयत्न के मैं किसी भी वस्तु को लेना नहीं चाहता। मुफ्त की वस्तु मुझे भोगमार्ग की ओर ले जाती है। [ग] (पूष्णो हस्ताभ्याम्) = पूषा के हाथों से मैं प्रत्येक वस्तु को लेता हूँ, अर्थात् मैं प्रत्येक वस्तु को उतना ही ग्रहण करता हूँ जितना कि पोषण के लिए पर्याप्त होता है। वस्तुओं के उपभोग में मेरा मापक 'पोषण' होता है न कि 'स्वाद व सौन्दर्य' तभी मैं अपने प्रकृष्ट विकास का रक्षक बनकर मन्त्र का ऋषि 'प्रजापतिः' बनता हूँ।
भावार्थ - भावार्थ- हमें 'तेजस्वी, वीर्यवान् व दीर्घजीवी' बनना है। आयु को प्रभु की धरोहर समझना है। आयु के रक्षण के लिए [क] प्रभु के आदेश के अनुसार प्रत्येक वस्तु का माप-तोलकर प्रयोग करना है। [ख] प्रयत्न से अर्थों का उपार्जन करना है और [ग] प्रयोग में मापक 'पोषण' को रखना है न कि 'स्वाद व सौन्दर्य' को ।
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