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  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 17
    ऋषिः - विश्वरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अ॒ग्निं दू॒तं पु॒रो द॑धे हव्य॒वाह॒मुप॑ब्रुवे।दे॒वाँ२ऽआ सा॑दयादि॒ह॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम्। दू॒तम्। पु॒रः। द॒धे॒। ह॒व्य॒वाह॒मिति॑ हव्य॒ऽवाह॑म्। उप॑। ब्रु॒वे॒। दे॒वान्। आ। सा॒द॒या॒त्। इ॒ह ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निन्दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे । देवाँऽआसादयादिह ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम्। दूतम्। पुरः। दधे। हव्यवाहमिति हव्यऽवाहम्। उप। ब्रुवे। देवान्। आ। सादयात्। इह॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -
    १. इस संसार - यात्रा में कार्य करते हुए हम (दूतम्) = तपोऽग्नि में सन्तप्त करनेवाले (अग्निम्) = हमें निरन्तर आगे ले चलनेवाले प्रभु को (पुरः दधे) = सामने रखते हैं, अर्थात् प्रभु के अविस्मरणपूर्वक ही हमारे सब कार्य होते हैं। इसी कारण उन कार्यों में अपवित्रता नहीं होती । २. (हव्यवाहम्) = हव्य पदार्थों की प्राप्ति करानेवाले परमात्मा की मैं (उपब्रुवे) = प्रार्थना करता हूँ। प्रात:-सायं उसके समीप उपस्थित होकर यही याचना करता हूँ कि 'हे सब अन्नों के पति प्रभो! हमें रोगरहित व बलकारक अन्न दीजिए'। उन सात्त्विक पदार्थों को प्राप्त कराइए जिनके सेवन से हमारे अन्तःकरण शुद्ध हों। ३. उनको शुद्ध करके हे प्रभो! आप (इह) = इस मानव-जीवन में, शुद्ध हृदय में, (देवान्) = दिव्य गुणों को (आसादयात्) = प्राप्त कराएँ । दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए शुद्ध हृदयता आवश्यक है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम कर्मों को करते हुए प्रभु को न भूलें। प्रभु से हव्य [ सात्त्विक] पदार्थों की याचना करें। प्रभु हमारे शुद्ध हृदयों में दिव्य गुणों की स्थापना करें। इस प्रकार प्रभु का सदा स्मरण करने से हम प्रभु के ही छोटे रूप 'विश्वरूप' बनते हैं।

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