Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
    0

    हिर॑ण्यपाणिमू॒तये॑ सवि॒तार॒मुप॑ह्वये। स चेत्ता॑ दे॒वता॑ प॒दम्॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यपाणि॒मिति॒ हिर॑ण्यऽपाणिम्। ऊ॒तये॑। स॒वि॒तार॑म्। उप॑। ह्व॒ये॒। सः। चेत्ता॑। दे॒वता॑। प॒दम् ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुपह्वये । स चेत्ता देवता पदम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यपाणिमिति हिरण्यऽपाणिम्। ऊतये। सवितारम्। उप। ह्वये। सः। चेत्ता। देवता। पदम्॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 22; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र का 'विश्वामित्र' बड़ी समझदारी से ठीक मार्ग पर चलने के कारण प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'मेधातिथि' = [मेधया अतति] समझदारी से चलनेवाला कहलाता है। यह कहता है कि मैं (ऊतये) = अपनी रक्षा के लिए उस प्रभु को (उपह्वये) = पुकारता हूँ जो (हिरण्यपाणिम्) = 'हिरण्यं पाणौ यस्य' हाथ में हिरण्य-सोना लिये हुए हैं। उस हिरण्यपाणि के प्राप्त हो जाने पर मुझे धन की आवश्कता ही क्या रहेगी? (सवितारम्) = वे तो सम्पूर्ण जगत् के उत्पादक हैं अथवा सम्पूर्ण ऐश्वर्योंवाले हैं। उस प्रभु को पा लेने पर ऐश्वर्य की क्या कमी रहेगी? हम प्रभु के अतिथि बनेंगे तो उस सर्वव्यापक विष्णु की पत्नी 'लक्ष्मी' ही हमारा आतिथ्य करेंगी। लक्ष्मी की हमें कमी क्यों होगी ? 'हिरण्यपाणि' की भावना यह भी है कि वे प्रभु 'हितरमणीय पाणि' वाले हैं। उन प्रभु का हाथ हमारे सिरों पर होगा तो हमारा कल्याण-ही-कल्याण होगा। २. (सः) = वे प्रभु (चेत्ता) = सर्वज्ञ हैं, सभी संज्ञानोंवाले हैं। इस प्रभु की उपासना मेरे ज्ञान को भी बढ़ानेवाली होगी। ३. (देवता) = वे देवता हैं। ('देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा') = वे प्रभु सब-कुछ देनेवाले हैं, ज्ञान से दीप्त हैं, सभी को दीप्ति देकर चमकानेवाले हैं। ४. (पदम् = 'पद्यते मुनिभिर्यस्मात् तस्मात् पद उदाहृतः') = वे प्रभु जानने योग्य हैं, अन्तिम लक्ष्य वे प्रभु ही हैं। उस प्रभु के ही समीप हमें पहुँचना है। वहाँ न पहुँचने तक मनुष्य भटकता ही रहता है। ('सा काष्ठा सा परागति:') = वे प्रभु ही यात्रा का चरम लक्ष्य हैं। वहीं शान्ति हैं, प्रभु को न पानेवालों को शान्ति कहाँ । ('तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्') = प्रभुनिष्ठ को ही शान्ति प्राप्त होती है, दूसरों को नहीं ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु 'हिरण्यपाणि, सविता चेत्ता- देवता व पद' हैं। उस प्रभु को ही प्राप्त करने के लिए यत्नशील होना चाहिए।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top