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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 24
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - मित्रादयो देवताः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    मा नो॑ मि॒त्रो वरु॑णोऽअर्य॒मायुरिन्द्र॑ऽऋभु॒क्षा म॒रुतः॒ परि॑ख्यन्।यद्वा॒जिनो॑ दे॒वजा॑तस्य॒ सप्तेः॑ प्रव॒क्ष्यामो॑ वि॒दथे॑ वी॒र्याणि॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। अ॒र्य॒मा। आ॒युः। इन्द्रः॑। ऋ॒भु॒क्षाः। म॒रुतः॑। परि॑ऽख्यन्। यत्। वा॒जिनः॑। दे॒वजा॑त॒स्येति॑ दे॒वऽजा॑तस्य। सप्तेः॑। प्र॒व॒क्ष्याम॒ इति॑ प्रऽव॒क्ष्यामः॑। वि॒दथे॑। वी॒र्या᳖णि ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो मित्रो वरुणोऽअर्यमायुरिन्द्रऽऋभुक्षा मरुतः परिख्यन् । यद्वाजिनो देवजातस्य सप्तेः प्रवक्ष्यामो विदथे वीर्याणि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा। नः। मित्रः। वरुणः। अर्यमा। आयुः। इन्द्रः। ऋभुक्षाः। मरुतः। परिऽख्यन्। यत्। वाजिनः। देवजातस्येति देवऽजातस्य। सप्तेः। प्रवक्ष्याम इति प्रऽवक्ष्यामः। विदथे। वीर्याणि॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार सब लोकों व लोकवासियों की अनुकूलता प्राप्त करके यह व्यक्ति प्रार्थना करता है कि (मित्र:) = स्नेह का देवता, (वरुणः) = द्वेष-निवारण का देवता, (अर्यमा) = दातृत्व, (आयु:) = [ इ गतौ ] गतिशीलता, (इन्द्रः) = इन्द्रियों का अधिष्ठातृत्व, (ऋभुक्षा:) = महत्ता अथवा [ऋतेन भान्ति इति ऋभवः, क्षि गति, ऋत = regularity] = नियमितता से दीप्त होकर चलना, तथा (मरुतः) = प्राण (नः) = हमें (मा परिख्यन्) = मत छोड़ें। ये उत्तम बातें व दिव्य गुण हमारा परित्याग न करें, २. (यत्) = क्योंकि हम तो विदथे ज्ञानयज्ञों में (वाजिन:) = सर्वशक्तिमान् (देवजातस्य) = देव लोगों से हृदय में आविर्भूत किये गये (सप्ते:) = सबमें समवेत [ षप समवाये ] अर्थात् प्राणिमात्र में व भूतमात्र में निवास करनेवाले उस प्रभु के (वीर्याणि) = शक्तिशाली कर्मों का (प्रवक्ष्यामः) = प्रवचन करेंगे। यह प्रभु के कर्मों का प्रवचन ही वस्तुतः मानव जीवन को शुद्ध बनाये रखता है। ज्ञानयज्ञों में एकत्र होकर हम शक्तिशाली, सब देवों में प्रादुर्भूत, सर्वत्र समवेत प्रभु का स्मरण करते हैं तो प्रभु के प्रिय बनते हैं। उस समय ये सब देव हमारा आश्रय करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का स्मरण करें, जिससे देव हमें त्याज्य न समझें। प्रभु का स्मरण हमें दिव्य गुणयुक्त बनाए । ऋषिः - गोतमः । देवता-

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