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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 36
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    यन्नीक्ष॑णं माँ॒स्पच॑न्याऽउ॒खाया॒ या पात्रा॑णि यू॒ष्णऽआ॒सेच॑नानि।ऊ॒ष्म॒ण्याऽपि॒धाना॑ चरू॒णाम॒ङ्काः सू॒नाः परि॑ भूष॒न्त्यश्व॑म्॥३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। नीक्ष॑ण॒मिति॑ नि॒ऽईक्ष॑णम्। मा॒ꣳस्पच॑न्या॒ इति॑ मा॒ꣳस्पच॑न्याः। उ॒खायाः॑। या। पात्रा॑णि। यू॒ष्णः। आ॒सेच॑ना॒नीत्या॒ऽसेच॑नानि। ऊ॒ष्म॒ण्या᳖। अ॒पि॒धानेत्य॑पि॒ऽधाना॑। च॒रू॒णाम्। अङ्काः॑। सू॒नाः। परि॑। भू॒ष॒न्ति॒। अश्व॑म् ॥३६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्नीक्षणम्माँस्पचन्याऽउखाया या पात्राणि यूष्णऽआसेचनानि । ऊष्मण्यापिधाना चरूणामङ्काः सूनाः परि भूषन्त्यश्वम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। नीक्षणमिति निऽईक्षणम्। माꣳस्पचन्या इति माꣳस्पचन्याः। उखायाः। या। पात्राणि। यूष्णः। आसेचनानीत्याऽसेचनानि। ऊष्मण्या। अपिधानेत्यपिऽधाना। चरूणाम्। अङ्काः। सूनाः। परि। भूषन्ति। अश्वम्॥३६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 36
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    पदार्थ -
    १. इस शरीर को प्रस्तुत मन्त्र में 'मांस्पचनी उखा' यह नाम दिया गया है। उखा देगची को कहते हैं, जिसमें व्यञ्जनों का परिपाक होता है। इस शरीर में भी खाये हुए आहार का वैश्वानर अग्नि के द्वारा परिपाक होता है और उस परिपाक में 'रस, रुधिर, मांस, अस्थि, मज्जा व वीर्य' इन धातुओं का निर्माण होता है। यहाँ 'मांस' बाकी सब धातुओं का उपलक्षण है। (मांस्पचन्याः उखायाः) = मांसादि धातुओं का जिसमें निरन्तर पाक द्वारा निर्माण हो रहा है, इस देगची का (यत्) = जो यह (नीक्षणम्) = [ नितराम् ईक्षणम्] ज्ञानेन्द्रियों द्वारा निरन्तर उस-उस विषय का दर्शन है, यह (अश्वम्) = निरन्तर इन क्रियाओं में व्याप्त जीव को (परिभू) = अलंकृत करता है। कभी इन ज्ञानेन्द्रियों से उस उस विषय के ग्रहण की प्रक्रिया का विचार करें तो उसमें अद्भुत सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता है। किस प्रकार ये दो आँखें एक ही वस्तु का ग्रहण करती हैं, दो कान एक ही शब्द सुनते हैं ? यह सब सोचने पर बड़ा अद्भुत लगता है। २. इससे भी अद्भुत शरीर में ग्रन्थियों [Glands] का कार्य है। यहाँ प्रस्तुत मन्त्र में इन्हें 'पात्र' कहा है। ये सचमुच शरीर का 'पा-रक्षणे' रक्षण करनेवाली हैं। (यः) = जो (पात्राणि) = ग्रन्थियाँ (यूष्णः) = रस का आसेचनानि शरीर में सर्वत्र सेचन करनेवाली हैं। इन ग्रन्थियों से विविध रस निकलकर शरीर में रक्षात्मक कार्यों को कर रहे हैं। इस प्रकार ये रसों के (आसिचन अश्वम्) = इस क्रिया में व्याप्त पुरुष को (परिभूषयन्ति) = अलंकृत कर रहे हैं। ३. यह त्वचा भी एक अद्भुत वस्तु है। यह (अपिधानः) = सारे शरीर को ढकनेवाली तो है ही और इस प्रकार (ऊष्मण्याः) = [ ऊष्मशब्दस्य धारणार्थे- उ० ऊष्माणं धारयन्ति - म ० ] शरीर में यह गर्मी का धारण करनेवाली है। देगची पर ढक्कन भी यही कार्य करता है कि 'अन्दर की गर्मी को अन्दर ही रखता है और नष्ट नहीं होने देता। इसी प्रकार यह त्वचा इस 'मांस्पचनी उखा' का ढक्कन है। इस ढक्कन की यह विशेषता है कि यह अन्दर की अधिक गर्मी को पसीने आदि के रूप में बाहर कर देता है और उसी पसीने आदि के वाष्पीयन में ही बाहर की गर्मी व्ययित हो जाती है, शरीर में प्रविष्ट नहीं हो पाती। एवं, यह त्वचा एक अद्भुत अपिधान है जो इस शरीर में प्रविष्ट जीवात्मा को [अश्वं ] (परिभूषति) = अलंकृत करता है। ४. इस शरीर में इन्द्रियाँ घोड़ों से उपमित होती हैं और उस समय जिन विषयों का ये ग्रहण करती हैं वे 'चरु' कहलाते हैं। ('विषयाँस्तेषु गोचारान्) । इन्द्रियाँ जो इनका ग्रहण करती हैं, तो जो संस्कार अन्दर मानस पटल पर या मस्तिष्क में पड़ते हैं वे वहाँ ('अङ्क:') = चिह्न कहलाते हैं। इंग्लिश में ये ही Impressions हैं। इन अङ्कों के बाद ही प्रेरणाओं का समय आता है। ये प्रेरणाएँ ही (सूना:) = 'षू प्रेरणे' कही गई हैं। वस्तुतः ये (चरूणाम्) = विषयों के (अंका:) = आगम व (सूना:) = प्रयोग-प्रेरण भी अद्भुत हैं। ये इस अश्व को अलंकृत कर रहे हैं।

    भावार्थ - भावार्थ - यह शरीर परिपाक द्वारा मांसादि धातुओं का निर्माण करनेवाली उखा [देगची] है। इसमें १. ज्ञानेन्द्रियों से उस-उस विषय के ग्रहण की प्रक्रिया २. ग्रन्थियों से रसों का आसेचन ३. गर्मी को सुरक्षित करनेवाली ढक्कन के समान यह त्वचा ४. विषयों का ग्रहण व प्रवचन- ये सब बातें बड़ी ही अद्भुत हैं। ये इस उखा में रहकर कार्यव्याप्त जीव के मानो भूषण हैं।

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