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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 40
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यत्ते॑ सा॒दे मह॑सा॒ शूकृ॑तस्य॒ पार्ष्ण्या॑ वा॒ कश॑या वा तु॒तोद॑।स्रु॒चेव॒ ता ह॒विषो॑ऽअध्व॒रेषु॒ सर्वा॒ ता ते॒ ब्रह्म॑णा सूदयामि॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ते॒। सा॒दे। मह॑सा। शूकृ॑तस्य। पार्ष्ण्या॑। वा॒। कश॑या। वा॒। तु॒तोद॑। स्रु॒चेवे॑ति सु॒चाऽइ॑व। ता। ह॒विषः॒। अ॒ध्व॒रेषु॑। सर्वा॑। ता। ते॒। ब्रह्म॑णा। सू॒द॒या॒मि॒ ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते सादे महसा शूकृतस्य पार्ष्ण्या वा कशया वा तुतोद । स्रुचेव ता हविषोऽअध्वरेषु सर्वा ता ते ब्रह्मणा सूदयामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ते। सादे। महसा। शूकृतस्य। पार्ष्ण्या। वा। कशया। वा। तुतोद। स्रुचेवेति सुचाऽइव। ता। हविषः। अध्वरेषु। सर्वा। ता। ते। ब्रह्मणा। सूदयामि॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 40
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार विद्यार्थी आचार्य से अनुशिष्ट होकर इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनता है। आचार्य ने अपनी (महसा) = तेजस्विता से विद्यार्थी को यथासम्भव शीघ्र ही शिक्षित करने का प्रयत्न किया है [शूकृतस्य शीघ्रं शिक्षितस्य - द० ] इस कार्य में उसे कभी-कभी विद्यार्थी को दण्ड भी देना पड़ता है। यह दण्ड हाथ-पाँव के प्रहार से भी हो सकता है [पाय = Neel एड़ी से भी] या वाणी के द्वारा झिड़कने से भी [ कशया- 'कश शासने']। आचार्य कहता है कि इन दण्डों को तुमने ऐसा समझना जैसे (स्रुचा) = चम्मच से यज्ञों में (हविषः) = घी डालना हो । आचार्य उन सब दण्डों को ज्ञान से प्रतितुलित कर देता है, अर्थात् ज्ञान देकर दण्ड के कष्ट को विस्मारित कर देता है। २. आचार्य विद्यार्थी से कहता है कि हे (सादे) = शरीररूप रथ के उत्तम सञ्चालक शिष्य (महसा) तेजस्विता से (शूकृतस्य) = शीघ्र शिक्षित किये हुए (ते) = तुझे (यत्) = जो (पाष्र्या) = ऐड़ी से (वा) = अथवा कशया [कशा वाङ्नामनिघण्टौ ] वाणी से झिड़कने के द्वारा (तुतोद) = मैंने कभी-कभी पीड़ित किया है, तूने यह स्पष्टरूप से समझ लेना कि (ता) = वे सब दण्ड तो इस प्रकार के हैं (इव) = जैसे (स्रुचा) = चम्मच से (हविषः) = हवि का (अध्वरेषु) = यज्ञों में प्रक्षपेण होता है। इन दण्डों के द्वारा तेरी वृत्ति को मैंने इधर-उधर से हटाकर ज्ञानप्रवण करने का प्रयत्न किया है। ३. इस प्रकार (ते) = तेरी (ता) = इन सब दण्ड-पीड़ाओं को मैं (ब्रह्मणा) = ज्ञानादि के द्वारा (सूदयामि) = भ्रष्ट करता हूँ। तुझे इस प्रकार कड़े नियन्त्रण में रहने से प्राप्त हुआ ज्ञान सब पीड़ाओं को भुलानेवाला होता है। आचार्य दयानन्द ने 'सूदयामि' का अर्थ 'प्रापयामि' किया है। तब इस मन्त्रखण्ड का अर्थ यह होगा कि मैं ता उन सब दण्डों को ते तुझे ब्रह्मणा ज्ञान के हेतु से ही (सूदयामि) = प्राप्त कराता हूँ। उन सब दण्डों का उद्देश्य एक ही होता है कि तू किसी प्रकार अधिक-से-अधिक ज्ञान प्राप्त करनेवाला बने। एवं, स्पष्ट है कि आचार्य अमृतयुक्त हाथों से दण्ड देते हैं, न कि विषसिक्त हाथों से।

    भावार्थ - भावार्थ- आचार्य विद्यार्थी को जो दण्ड देते हैं वह यज्ञ में सुवा से हवि के प्रक्षेपण के समान है। उसके द्वारा आचार्य विद्यार्थी के जीवन-यज्ञ में ज्ञान की आहुति देने का प्रयत्न करते हैं।

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