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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 17
    ऋषिः - अश्विनावृषी देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - भुरिग्जगती स्वरः - निषादः
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    दे॒वा दैव्या॒ होता॑रा दे॒वमिन्द्र॑मवर्द्धताम्। ह॒ताघ॑शꣳसा॒वाभा॑र्ष्टां॒ वसु॒ वार्या॑णि॒ यज॑मानाय शिक्षि॒तौ व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वीतां॒ यज॑॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वा। दैव्या॑। होता॑रा। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्द्ध॒ता॒म्। ह॒ताघ॑शꣳसा॒विति॑ ह॒तऽअ॑घशꣳसौ। आ। अ॒भा॒र्ष्टा॒म्। वसु॑। वार्या॑णि। यज॑मानाय। शि॒क्षि॒तौ। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वी॒ता॒म्। यज॑ ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा देव्या होतारा देवमिन्द्रमवर्धताम् । हताघशँसावाभार्ष्टाँवसु वार्याणि यजमानाय शिक्षितौ वसुवने वसुधेयस्य वीताँयज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवा। दैव्या। होतारा। देवम्। इन्द्रम्। अवर्द्धताम्। हताघशꣳसाविति हतऽअघशꣳसौ। आ। अभार्ष्टाम्। वसु। वार्याणि। यजमानाय। शिक्षितौ। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वीताम्। यज॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -
    १. ऐ० २।४ के अनुसार प्राणापान 'दैव्य होता' हैं। ये (देवा:) = दिव्य गुणयुक्त व शरीर के सारे व्यवहारों के साधक हैं। ये दोनों (दैव्या होतारा) = प्राणापान (देवम्) = दिव्य गुणोंवाले, काम क्रोधादि की विजिगीषावाले (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अवर्धताम्) = बढ़ाते हैं। सब प्रकार की उन्नति का निर्भर इन्हीं पर है। इनकी साधना से ही मन की वृत्ति को भी हमने वश में करना है। वशीभूत मन हमारे मोक्ष तक का साधक बनता है, अतः प्राणापान सचमुच हमारा उत्तम वर्धन करते हैं । २. (हता अघशंसौ) = अघ व पाप के शंसन [ प्रशंसन] को जिन्होंने नष्ट किया है। प्राणासाधना होने पर पाप पाप के रूप में दिखते हैं। उनका चमकीला रूप हमें लुब्ध नहीं कर पाता। ऐसे ये प्राणापान (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए (वार्याणि वसु) = [ वसूनि ] वरणीय धनों को (आभाष्टम्) = प्राप्त कराएँ [ आहृतवन्तौ] । ३. (शिक्षितौ) = इस प्रकार यज्ञशील के लिए उत्तम धन देने के लिए (अभ्यस्त) = ये प्राणापान (वसुवने) = धन के सेवन में (वसुधेयस्य) = धन के आधारभूत प्रभु का (वीताम्) = अपने में विकास करें और हे जीव! तू यज-इन प्राणापान को अपने साथ संगत कर ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणापान की साधना हमारे दृष्टिकोण को शुद्ध करे। हम पाप को पाप के ही रूप में देखें।

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