Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 20
    ऋषिः - अश्विनावृषी देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृदतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
    0

    दे॒वो दे॒वैर्वन॒स्पति॒र्हिर॑ण्यपर्णो॒ मधु॑शाखः सुपिप्प॒लो दे॒वमिन्द्र॑मवर्धयत्। दिव॒मग्रे॑णास्पृक्ष॒दान्तरि॑क्षं पृथि॒वीम॑दृꣳहीद्वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वः। दे॒वैः। वन॒स्पतिः॑। हिर॑ण्यपर्ण॒ इति॒ हिर॑ण्यऽपर्णः। मधु॑शाख इति॑ मधु॑ऽशाखः। सु॒पि॒प्प॒ल इति॑ सुऽपिप्प॒लः। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। दिव॑म्। अग्रे॑ण। अ॒स्पृ॒क्ष॒त्। आ। अ॒न्तरि॑क्षम्। पृ॒थि॒वीम्। अ॒दृ॒ꣳही॒त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒ऽधेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥२० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवो देवैर्वनस्पतिर्हिरण्यपर्णा मधुशाखः सुपिप्पलो देवमिन्द्रमवर्धयत् । दिवमग्रेणास्पृक्षदान्तरिक्सम्पृथिवीमदृँद्वसुवने वसुधेयस्य वेतु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवः। देवैः। वनस्पतिः। हिरण्यपर्ण इति हिरण्यऽपर्णः। मधुशाख इति मधुऽशाखः। सुपिप्पल इति सुऽपिप्पलः। देवम्। इन्द्रम्। अवर्धयत्। दिवम्। अग्रेण। अस्पृक्षत्। आ। अन्तरिक्षम्। पृथिवीम्। अदृꣳहीत्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुऽधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वेतु। यज॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 20
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    १. (देवः) = सब व्यवहारों का साधक, (हिरण्यपर्ण:) = हितरमणीय पालन व पूरण करनेवाला [सुनहले पत्तोंवाला], (मधुशाख:) = माधुर्यमयी शाखाओंवाला (सुपिप्पलः) = उत्तम फलवाला (वनस्पतिः) = सौन्दर्य, यश व धन [ loveliness, glory, wealth] का रक्षक यह संसार - वृक्ष (देवैः) = अपने 'अग्नि, वायु सूर्य' आदि देवों से (देवम्) = ज्ञान की दीप्ति प्राप्त करनेवाले (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अवर्धयत्) = बढ़ाता है। यह संसार एक वृक्ष है। यह हमें सब आवश्यक वस्तुओं को देकर [देवो दानात्] हमारे सब जीवन व्यवहारों का साधक है [व्यवहार = दिव्], अतः 'देव' है। यह सुन्दरता व हितपूर्वक हमारा पालन करने से 'हिरण्यपर्ण' है। इसकी विविध योनिरूप शाखाओं में हमारे लिए माधुर्य निहित है। गौ हमें दूध देती है। घोड़ा हमारे व्यायाम व आने-जाने का साधन बनता है, भेड़ हमें ऊन प्राप्त कराती है, बकरी सर्वरोगापहारी दूध देती हुई पशम देती है। इस प्रकार ये विविध शाखाएँ हमारे जीवन को मधुर बना रही हैं। मधुर फलोंवाला तो यह वृक्ष है ही। इस संसार - वृक्ष के सूर्यादि सब देव जितेन्द्रिय पुरुष की उन्नति का कारण बनते हैं । २. यह संसार-वृक्ष (अग्रेण) = अग्रभाग से (दिवम्) = द्युलोक को (अस्पृक्षत्) = छूता है, अर्थात् इसका एक प्रान्त [ सिरा] द्युलोक है तो यह (आ अन्तरक्षिम्) = चारों ओर इस अन्तरिक्ष को व्याप्त किये हुए है और (पृथिवीम्) = पृथिवी को (अगृहीत्) = दृढ़ बना रहा है। इसका मध्यभाग अन्तरिक्ष है और इसका [उपरेण] दूसरा सिरा यह दृढ़ पृथिवीलोक है। इस प्रकार त्रिलोकी से बना हुआ यह संसारवृक्ष है । ३. यह संसार वृक्ष वसुवने धन के सेवन में (वसुधेयस्य वेतु) = धन के आधारभूत उस प्रभु का प्रजनन प्रादुर्भाव करनेवाला हो । (यज) हे जीव ! तू उस प्रभु से अपना मेल करनेवाला बन। एतदर्थ तू यज्ञशील हो, दान देनेवाला बन।

    भावार्थ - भावार्थ - यह 'हिरण्यपर्ण मधुशाख, सुपिप्पल' संसारवृक्ष हमारे लिए वर्धन का कारण बने। धन के सेवन में धन के आधारभूत प्रभु का प्रादुर्भाव करनेवाला हो।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top