यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 11
दि॒वि धा॑ऽइ॒मं य॒ज्ञमि॒मं य॒ज्ञं दि॒वि धाः॑।स्वाहा॒ऽग्नये॑ य॒ज्ञिया॑य॒ शं यजु॑र्भ्यः॥११॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वि। धाः॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। दि॒वि। धाः॒ ॥ स्वाहा॑। अ॒ग्नये॑। य॒ज्ञिया॑य। शम्। यजु॑र्भ्य॒ इति॒ यजुः॑ऽभ्यः ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवि धाऽइमँयज्ञमिमम्यज्ञन्दिवि धाः । स्वाहाग्नये यज्ञियाय शँयजुर्भ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठ
दिवि। धाः। इमम्। यज्ञम्। इमम्। यज्ञम्। दिवि। धाः॥ स्वाहा। अग्नये। यज्ञियाय। शम्। यजुर्भ्य इति यजुःऽभ्यः॥११॥
विषय - ज्ञान व यज्ञ
पदार्थ -
१. हे प्रभो! दिवि ज्ञान के प्रकाशवाले इस पुरुष में (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (धाः) = धारण कीजिए । ज्ञानी पुरुष यज्ञशील बने। यदि दुर्भाग्यवश ज्ञानी पुरुष यज्ञ की भावनावाला, संगतिकरण व मेल की भावनावाला नहीं होता तो वह संहारक अस्त्रों के निर्माण में अपने ज्ञान का विनियोग करता है। परिणामत: वह मानव के लिए अशान्ति की वृद्धि का कारण होता है। ऐसे ही पुरुषों को 'ब्रह्मराक्षस' कहा गया है। सामान्य भाषा में ज्ञानी को 'साक्षर' [स अक्षर = literate] कहते हैं। यदि यह यज्ञिय भावनावाला नहीं रहता तो विपरीतवृत्ति होना आवश्यक है । २. साथ ही (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (दिवि) = ज्ञान के प्रकाशवाले में ही (धाः) = धारण कर। जिस समय ये यज्ञ अज्ञानियों के हाथों में चले जाते हैं, तब इनमें रीतियों rituals का प्राधान्य हो जाता है और यज्ञ की भावना समाप्त ही नहीं हो जाती अपितु अत्यन्त विकृतरूप धारण करती है। उस समय यज्ञों में पशुबलि व सुरा सेवन भी चल पड़ता है। संक्षेप में यज्ञ 'अयज्ञ' हो जाते हैं। ३. प्रभो! ऐसी कृपा कीजिए कि हमारे जीवन में (यज्ञियाय अग्नये) = यज्ञ की अग्नि के लिए (स्वाहा) = कुछ-न-कुछ स्वार्थ का त्याग होता ही रहे। हमारा जीवन एकदम विलासमय न होकर यज्ञिय बन जाए। हम 'केवलादी' न रहें, अपञ्चयज्ञ व मलिम्लुच चोर न हो जाएँ। ४. (यजुर्भ्यः) = यजुओं के द्वारा 'देवपूजा-संगतिकरण व दान' रूप यज्ञ के द्वारा (शम्) = हमारे जीवनों में शान्ति हो । वास्तविक शान्ति का मूलमन्त्र यज्ञ ही है।
भावार्थ - भावार्थ- हमारे जीवन में ज्ञान व यज्ञ दोनों का सुन्दर समन्वय हो। हम यज्ञिय अग्नि के लिए अपना त्याग करें। 'देवपूजा, संगतिकरण व दान' रूप यज्ञ हमारे जीवन को शान्ति देनेवाले हों।
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