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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 15
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् जगती,याजुषी पङ्क्ति, स्वरः - निषादः
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    अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि वा॒चो वि॒सर्ज॑नं दे॒ववी॑तये त्वा गृह्णामि बृ॒हद् ग्रा॑वासि वानस्प॒त्यः सऽइ॒दं दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः श॑मीष्व सु॒शमि॑ शमीष्व। हवि॑ष्कृ॒देहि॒ हवि॑ष्कृ॒देहि॑॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः। त॒नूः। अ॒सि॒। वा॒चः। वि॒सर्ज॑न॒मिति॑ वि॒ऽसर्ज॑नम्। दे॒ववी॑तय॒ इति॑ दे॒वऽवी॑तये। त्वा॒। गृ॒ह्णा॒मि॒। बृ॒हद्ग्रा॒वेति॑ बृ॒हत्ऽग्रा॑वा। अ॒सि॒। वा॒न॒स्प॒त्यः। सः। इ॒दम्। दे॒वेभ्यः॑। ह॒विः। श॒मी॒ष्व॒। श॒मि॒ष्वेति॑ शमिष्व। सु॒शमीति॑ सु॒ऽशमि॑। श॒मी॒ष्व॒। श॒मि॒ष्वेति॑ शमिष्व। हवि॑ष्कृत्। हविः॑कृ॒दिति॒ हविः॑कृत्। आ। इ॒हि॒। हवि॑ष्कृत्। हविः॑कृ॒दिति॒ हविः॑ऽकृत्। आ। इ॒हि॒ ॥१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेस्तनूरसि वाचो विसर्जनन्देववीतये त्वा गृह्णामि बृहद्ग्रावासि वानस्पत्यः स इदन्देवेभ्यो हविः शमीष्व सुशमि शमीष्व हविष्कृदेहि हविष्कृदेहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः। तनूः। असि। वाचः। विसर्जनमिति विऽसर्जनम्। देववीतय इति देवऽवीतये। त्वा। गृह्णामि। बृहद्ग्रावेति बृहत्ऽग्रावा। असि। वानस्पत्यः। सः। इदम्। देवेभ्यः। हविः। शमीष्व। शमिष्वेति शमिष्व। सुशमीति सुऽशमि। शमीष्व। शमिष्वेति शमिष्व। हविष्कृत्। हविःकृदिति हविःकृत्। आ। इहि। हविष्कृत्। हविःकृदिति हविःऽकृत्। आ। इहि॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 15
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    भावार्थ -

     हे प्रजा के पालक यज्ञमय प्रजापते ! राजन् ! तू ( अग्नेः तनूः असि) अग्नि का स्वरूप है। अग्नि के समान साक्षात् अग्रणी और दुष्टों का तापकारी है । ( वाच: विसर्जनम् ) वेद आदि वाणियों और स्तुतियुक्त वाणियों के त्याग करने, भेंट करने का स्थान है । (त्वा) तुझ को हम प्रजाजन (देववीतये) देव, विद्वानों के रक्षा के निमित्त (गृह्णामि ) स्वीकार करते हैं । तू (वानस्पत्यः ) वनस्पति अर्थात् काष्ट के बने मूसल के समान शत्रुनाशक और ( बृहद्ग्रावा असि ) बड़ा भारी ग्रावा पाषाण के समान शत्रु के दलन करने वाला है। (इदम्) यह ( देवेभ्यः )देव विद्वान् पुरुषों के उपकार के लिये ( हविः ) ग्रहण करने योग्य अन्न या भोग्य पदार्थ है ! (सः) वह तू राजा उसको ( शमीष्व ) शान्तिदायक रूप में तैयार कर । ( सुशमि ) उत्तम रीति से दुःखशमन करने के लिये ( शमीष्व) उसको उत्तम रीति से तैयार कर । हे  ( हविष्कृत ) अन्न आदि पदार्थों के तैयार करने वाले सत्पुरुष ! तू ( एहि ) आ । हे ( हविष्कृत एहि ) अन्न आदि पदार्थों को तैयार करने वाले पुरुष ! तू आ ॥ शत० १।१।४।८-१३ ॥ 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    हविर्मुसलं वाक् पत्नी च यज्ञो वा देवता ( १ ) निचृत् जगती, निषादः ( २ ) याजुषी पंक्तिः । पञ्चमः स्वरः ॥

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