यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 9
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
1
अह्रु॑तमसि हवि॒र्धानं॒ दृꣳह॑स्व॒ मा ह्वा॒र्मा ते॑ य॒ज्ञप॑तिर्ह्वार्षीत्। विष्णु॑स्त्वा क्रमतामु॒रु वाता॒याप॑हत॒ꣳरक्षो॒ यच्छ॑न्तां॒ पञ्च॑॥९॥
स्वर सहित पद पाठअह्रु॑तम्। अ॒सि॒। ह॒वि॒र्धान॒मिति॑ हविः॒ऽधान॑म्। दृꣳह॑स्व। मा। ह्वाः॒। मा। ते॒। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। ह्वा॒र्षी॒त्। विष्णुः॑। त्वा॒। क्र॒म॒तां॒। उ॒रु। वाता॒य। अप॑हत॒मित्यप॑ऽहतम्। रक्षः॑। यच्छ॑न्ताम्। पञ्च॑ ॥९॥
स्वर रहित मन्त्र
अह्रुतमसि हविर्धानं दृँहस्व मा ह्वार्मा यज्ञपतिर्ह्वार्षीत् । विष्णुस्त्वा क्रमतामुरु वातायापहतँ रक्षो यच्छन्तांम्पञ्च ॥
स्वर रहित पद पाठ
अह्रुतम्। असि। हविर्धानमिति हविःऽधानम्। दृꣳहस्व। मा। ह्वाः। मा। ते। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। ह्वार्षीत्। विष्णुः। त्वा। क्रमतां। उरु। वाताय। अपहतमित्यपऽहतम्। रक्षः। यच्छन्ताम्। पञ्च॥९॥
विषय - दुष्टों का दमन ।
भावार्थ -
हे यज्ञ ! प्रजापते ! तू ( अण्हुतम् ) कुटिलता से रहित ( हविर्धानम् )अन्न और ज्ञान का आधार और उसका आश्रयस्थान है । हे यजमान ! यज्ञशील पुरुष ! तू ( दृंहस्व ) ऐसे यज्ञ को सदा बढ़ा । ( मा हाः ) तू उसको त्याग मत कर हे यज्ञ ! ( ते ) तेरा ( यज्ञपति; ) यज्ञ पालक, स्वामी पुरुष ( मा ह्वार्षीत् ) तुझे त्याग न करे । हे यज्ञ ! ( वा ) तुझे ( विष्णुः ) व्यापक सूर्य या परमेश्वर ( क्रमताम् ) शासन करता, तुझे रचता और तुझ पर अधिष्ठाता रूप से विद्यमान है । वह इस ब्रह्माण्ड रूप शकट या महान् यज्ञ में शासक है। वह ही ( उरु वाताय ) महान् जीवनप्रद वायु और प्राणियों के प्राण समष्टि के संचालन करने के लिये विद्यमान है । ( रक्षः ) जीवन के विघ्न करने हारा दुष्ट हिंसक ( उपहृतम् ) मार दिया जाय । ( पंच ) पांचों अंगुलियां जिस प्रकार किसी पदार्थ को पकड़ती हैं उसी प्रकार पांचों जन यज्ञ में एकत्र होकर ( यच्छन्ताम् ) दुष्टों का निग्रह करें और जीवनोपयोगी सुखों का संग्रह करें । लोग अन्न सम्पादक यज्ञ को बढ़ावें, उसको कभी न त्यागें । व्यापक सूर्य सर्वत्र फेले; जिससे खूब वायु बहे और रक्षोगण, जीवननाशक पदार्थ नष्ट हों और पांचों जन मिल कर उन राक्षसों का दमन करें ॥ शत० १।१।२।१२-१२ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
अनो व्रीहियवादयो रक्षो हविर्विष्णुश्च देवताः । त्रिष्टुप् ॥ धैवतः स्वरः ॥
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