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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 28
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    होता॑ध्व॒र्युराव॑याऽअग्निमि॒न्धो ग्रा॑वग्रा॒भऽउ॒त शस्ता॒ सुवि॑प्रः। तेन॑ य॒ज्ञेन॒ स्वरङ्कृतेन॒ स्विष्टेन व॒क्षणा॒ऽआ पृ॑णध्वम्॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑ अ॒ध्व॒र्युः। आव॑या॒ इत्याऽव॑याः। अ॒ग्नि॒मि॒न्ध इत्या॑ग्निम्ऽइ॒न्धः। ग्रा॒व॒ग्रा॒भ इति॑ ग्रावऽग्रा॒भः। उ॒त। शस्ता॑। सुवि॑प्र॒ इति॑ सुऽवि॑प्रः। तेन॑। य॒ज्ञेन॑। स्व॑रङ्कृते॒नेति॒ सुऽअ॑रङ्कृतेन। स्वि᳖ष्टे॒नेति॒ सुऽइ॑ष्टेन। व॒क्षणाः॑। आ। पृ॒ण॒ध्व॒म् ॥२८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होताध्वर्युरावयाऽअग्निमिन्धो ग्रावग्राभऽउत शँस्ता सुविप्रः । तेन यज्ञेन स्वरङ्तेन स्विष्टेन वक्षणाऽआ पृणध्वम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता अध्वर्युः। आवया इत्याऽवयाः। अग्निमिन्ध इत्याग्निम्ऽइन्धः। ग्रावग्राभ इति ग्रावऽग्राभः। उत। शस्ता। सुविप्र इति सुऽविप्रः। तेन। यज्ञेन। स्वरङ्कृतेनेति सुऽअरङ्कृतेन। स्विष्टेनेति सुऽइष्टेन। वक्षणाः। आ। पृणध्वम्॥२८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 28
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    भावार्थ -
    यज्ञ में होता, अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता अग्नीध्र, ग्रावस्तुत्, प्रशास्ता और ब्रह्मा ये ऋत्विग् हैं उसी प्रकार राष्ट्ररूप यज्ञ में (होता) अधिकारों का प्रदाता, (अध्वर्युः) मुख्य महामात्य या पुरोहित (आवयाः) आहुति प्रदान करने वाले के समान, सबको परस्पर सुसंगत या अधनों को वेतन देने वाला, (अग्निमिन्ध:) अग्नि को दीप्त करने वाले अग्नीध के समान राजा को विशेष ज्ञान और मान से उज्ज्वल करने वाला, (ग्राव- ग्राभः) सोमयज्ञ में प्रस्तरों के ग्रहण करने वाले के समान राष्ट्र में विद्वानों का आदर सत्कार से ग्रहण करने वाला, या शस्त्रास्त्रघर, ( शंस्ता) राजा का प्रशंसक वा उत्तम उपदेष्टा, (सुविप्रः) ब्रह्मा के समान उत्तम विद्वान् सभापति हो । (तेन) उस (सु-अरङ्कृतेन) उत्तम रीति से सुशोभित, ( स्विष्टेन ) उत्तम रीति से सुसञ्चालित ( यज्ञेन ) सुव्यवस्थित राष्ट्र से ( वक्षणा: ) जलों से नदियों के समान प्रजाओं को ( आ पृणध्वम् ) पूर्ण करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञः । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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