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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 44
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - स्वराट् पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    न वाऽउ॑ऽए॒तान्म्रि॑यसे॒ न रि॑ष्यसि दे॒वाँ२ऽइदे॑षि प॒थिभिः॑ सु॒गेभिः॑।हरी॑ ते॒ युञ्जा॒ पृष॑तीऽअभूता॒मुपा॑स्थाद् वा॒जी धु॒रि रास॑भस्य॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न। वै। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ए॒तत्। म्रि॒य॒से॒। न। रि॒ष्य॒सि॒। दे॒वान्। इत्। ए॒षि। प॒थिऽभिः॑। सु॒गेभिः॑। हरी॒ इति॒ हरी॑। ते॒। युञ्जा॑। पृष॑ती॒ इति॒ पृष॑ती। अ॒भू॒ता॒म्। उप॑। अ॒स्था॒त्। वा॒जी। धु॒रि। रास॑भस्य ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न वाऽउ एतन्म्रियसे न रिष्यसि देवाँऽइदेषि पथिभिः सुगेभिः । हरी ते युञ्जा पृषतीऽअभूतामुपास्थाद्वाजी धुरि रासभस्य ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    न। वै। ऊँ इत्यूँ। एतत्। म्रियसे। न। रिष्यसि। देवान्। इत्। एषि। पथिऽभिः। सुगेभिः। हरी इति हरी। ते। युञ्जा। पृषती इति पृषती। अभूताम्। उप। अस्थात्। वाजी। धुरि। रासभस्य॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 44
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    भावार्थ -
    हे राष्ट्रवासीजन ! ( एतत् ) इस प्रकार सुव्यवस्था से तू (न वा म्रियसे) कभी मृत्यु को प्राप्त न हो। ( न रिष्यसि ) तू कभी पीड़ित न हो, (सुगेभिः पथभिः) उत्तम गमन करने योग्य मार्गों, राजनियम और मर्यादाओं से ( देवान् ) इस उत्तम- उत्तम राजा प्रजा के परस्पर व्यवहारों, श्रेष्ठ गुणों और उन्नत प्रजाओं और विद्वानों को (एषि) प्राप्त हो । (ते) तेरे सञ्चालक (पृषती हरी) रथ में हृष्ट पुष्ट घोड़ों के समान खूब दृढ़ राज्य के सञ्चालन में कुशल पुरुष (युञ्जा) नियुक्त ( अभूताम् ) हों और (रासभस्य) मार्गोपदेश करने वाले महामन्त्री के (धुरि ) पद पर (वाजी) ज्ञानैश्वर्यवान् पुरुष (उप अस्थात् ) स्थित हो, स्थापित किया जाय ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - आत्मा देवता । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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