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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 40
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यत्ते॑ सा॒दे मह॑सा॒ शूकृ॑तस्य॒ पार्ष्ण्या॑ वा॒ कश॑या वा तु॒तोद॑।स्रु॒चेव॒ ता ह॒विषो॑ऽअध्व॒रेषु॒ सर्वा॒ ता ते॒ ब्रह्म॑णा सूदयामि॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ते॒। सा॒दे। मह॑सा। शूकृ॑तस्य। पार्ष्ण्या॑। वा॒। कश॑या। वा॒। तु॒तोद॑। स्रु॒चेवे॑ति सु॒चाऽइ॑व। ता। ह॒विषः॒। अ॒ध्व॒रेषु॑। सर्वा॑। ता। ते॒। ब्रह्म॑णा। सू॒द॒या॒मि॒ ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते सादे महसा शूकृतस्य पार्ष्ण्या वा कशया वा तुतोद । स्रुचेव ता हविषोऽअध्वरेषु सर्वा ता ते ब्रह्मणा सूदयामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ते। सादे। महसा। शूकृतस्य। पार्ष्ण्या। वा। कशया। वा। तुतोद। स्रुचेवेति सुचाऽइव। ता। हविषः। अध्वरेषु। सर्वा। ता। ते। ब्रह्मणा। सूदयामि॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 40
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    भावार्थ -
    हे राजन् ! (महसा) अपने तेज से (शुकृतस्य) शीघ्रता से कार्य करने वाले, अविवेक से कुपथ पर पैर रखने वाले (ते) तेरे (सादे) अवसाद अर्थात् कार्यभ्रष्ट हो जाने पर यदि कोई पुरुष, (पार्ष्ण्या) प्रमादयुक्त घोड़े को अश्वारोही जिस प्रकार 'शू' करके एड़ी या चाबुक से चला देता है उसी प्रकार कोई (पार्ष्ण्या) तेरे पीठ पीछे से आक्रमण करने वाली सेना द्वारा और (कशया) अपनी शासन शक्ति से तुझे (तुतोद ) व्यथा या पीड़ा पहुँचावे तो (ते) तेरी (ता) उन (सर्वा) सब त्रुटियों को मैं पुरोहित (हविष: स्रुचा इव) स्रुवों से जैसे हवि, चरु दिया जाता है उसी प्रकार 'उनको (ब्रह्मणा) वेद ज्ञान द्वारा अथवा महान् साम्राज्य शक्ति से (सूदयामि) दूर करूं, नष्ट करूं । कश गतिशासनयोः । भ्वादिः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यश: । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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