यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - प्राणो देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्,
स्वरः - पञ्चमः
1
वा॒चस्पत॑ये पवस्व॒ वृष्णो॑ऽअ॒ꣳशुभ्यां॒ गभ॑स्तिपूतः। दे॒वो दे॒वेभ्यः॑ पवस्व॒ येषां॑ भा॒गोऽसि॑॥१॥
स्वर सहित पद पाठवा॒चः। पत॑ये। प॒व॒स्व॒। वृष्णः॑। अ॒ꣳशुभ्या॒मित्य॒ꣳशुऽभ्या॑म्। गभ॑स्तिपूत॒ इति॒ गभ॑स्तिऽपूतः॒। दे॒वः। दे॒वेभ्यः॑। प॒व॒स्व॒। येषा॑म्। भा॒गः। असि॑ ॥१॥
स्वर रहित मन्त्र
वाचस्पतये पवव वृष्णो अँशुभ्याङ्गभस्तिपूतः । देवो देवेभ्यः पवस्व येषां भागो सि ॥
स्वर रहित पद पाठ
वाचः। पतये। पवस्व। वृष्णः। अꣳशुभ्यामित्यꣳशुऽभ्याम्। गभस्तिपूत इति गभस्तिऽपूतः। देवः। देवेभ्यः। पवस्व। येषाम्। भागः। असि॥१॥
विषय - आज्ञापक और आज्ञाप्य और गुरु शिष्य का परस्पर पवित्र सम्बन्ध ।
भावार्थ -
हे पुरुष ! तु ( वाचः पतये ) आज्ञा करने वाली वाणी के पालक अर्थात् स्वामी के लिये ( पवस्व ) पवित्र हो, उसकी आज्ञा पालन करने के निमित्त दत्तचित्त होकर चित्त से वैर आदि के भावों को त्याग कर । ( कृष्णः ) सूर्य के ( गभस्तिपूनः ) किरणों से जिस प्रकार वायु पवित्र होकर वाचःपति प्राण के लिये शरीर में जाता है इसी प्रकार ( वृष्णाः ) समस्त सुखों के वर्षक, राजा के ( गभस्तिपूतः ) ग्रहण करने के सामर्थ्य, तेज या प्रताप से पवित्र होकर और उसके ( अंशुभ्याम् ) दोनों प्रकार की बाह्य और आभ्यन्तर शक्तियों से पवित्र होकर तू स्वयं ( देवः ) देव, दान- शील, एवं विजिगीषु होकर ( येषाम् ) जिनका तू ( भागः असि ) स्वयं सेवनीय अंश है । ( देवेभ्यः ) उन, देव, विद्वानों के उपकार के लिये ( पव- स्व ) शुद्ध पवित्र होकर काम कर। जिस पुरुष को प्रथम राज कार्य में नियुक्त करे उसको अपने वाचस्पति अर्थात् अपने ऊपर के आज्ञादाता के प्रति स्वच्छ रहना चाहिये वह उसकी आज्ञा का कभी उल्लंघन न करे। वह स्वयं विद्वान्, उनके ही निमित्त उसको बद्ध करे। राजा से लेकर अन्तिम कर्म करने तक यहीं मन्त्र लागू हो पदाधिकारी स्वयं भी 'देव' अर्थात् राजा के स्वभाव का हो |
अध्यात्म में - अंशु प्रजापति आत्मा के दो भाग प्राण और उदान हैं । वायु उन द्वारा गृहीत होकर वाचस्पति आत्मा मुख्य प्रायण के लिये शरीर में गति करता है। वह स्वयं एक मुखगत 'देव' या कर्मेन्द्रिय होकर अन्य अंगों के या इन्दियों के लिये शरीर में गति करता है। इसी प्रकार राजा और मुख्य नियुक्त पुरुष भी अपने अधीन पदाधिकारियों के लिए पवित्र निष्कपट होकर काम करे । शतपथ में यह ग्रहों के प्रकरण में लिखा गया है । 'ग्रह' का अर्थ है राज्य को वश करने के निमित्त विशेष विभाग का अधिकारी। वे सब सोम राजा के ही अधिकार को बांट कर रहते हैं । शत० ४।१।१।८-१२ ॥
यद् गृह्णाति तस्माद् ग्रहः । श० १० । १ । १ । ५ ॥ तं सोमम् अघ्नन् । तस्य यशो व्यगृह्णात ते ग्रहा अभवन् । यद्वित्तं ( यज्ञं ) गृहैर्व्यगृह्णात तद् ग्रहाणां ग्रहत्वम् । ए० ३ । ९ ॥ अध्यात्मम् ---अष्टौ महाः । प्रायः जिह्वा, वाक् चक्षुः, श्रोत्रम् मनो, हस्ती त्वक् च । श० १० । ६ । २ । १ । प्राणाः वै ग्रहाः । श० ४ । २ । ४ । १३ ।। अङ्गानि वै ग्रहाः । श० ४ । ५ । ९ । ११ । अर्थात् - जो ग्रहण करे सबको वश करे वह 'ग्रह' है । सोम को प्राप्त करके उसके विस्तार के टुकड़े २ कर दिये, राजा के अधिकार को विभक्त कर दिया, वे राजा के अधीन विभागों के अध्यक्ष 'ग्रह' होगये । यज्ञ अर्थात् प्रजापति राष्ट्र को विभक्त कर दिया वे 'ग्रह' हैं। शरीर में प्राण 'ग्रह' है अङ्ग 'ग्रह' है ।
गभस्ति - गां भसति अदन्ति दीप्यन्ते वा गभस्तयः इति देवराजः । गृहेर्गभस्तिरिति माधवः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
प्राणो देवता । भुरिगार्यनुष्टुप् । गांधारः ॥
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