यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 16
ऋषिः - वत्सार काश्यप ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,साम्नी गायत्री
स्वरः - षड्जः
2
अ॒यं वे॒नश्चो॑दय॒त् पृश्नि॑गर्भा॒ ज्योति॑र्जरायू॒ रज॑सो वि॒माने॑। इ॒मम॒पा स॑ङ्ग॒मे सूर्य॑स्य॒ शिशुं॒ न विप्रा॑ म॒तिभी॑ रिहन्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ मर्का॑य त्वा॥१६॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम्। वे॒नः। चो॒द॒य॒त्। पृश्नि॑गर्भा॒ इति॒ पृश्नि॑ऽगर्भाः। ज्योति॑र्जरायु॒रिति॒ ज्योतिः॑ऽजरायुः। रज॑सः। वि॒मान॒ इति॑ वि॒ऽमाने॑। इ॒मम। अ॒पाम्। स॒ङ्ग॒म इति॑ सम्ऽग॒मे। सूर्य्य॑स्य। शिशु॑म्। न। विप्राः॑। म॒तिभि॒रिति॑ म॒तिऽभिः॑। रि॒ह॒न्ति॒। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। मर्का॑य। त्वा॒ ॥१६॥
स्वर रहित मन्त्र
अयँवेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने । इममपाँ सङ्गमे सूर्यस्य शिशुन्न विप्रा मतिभी रिहन्ति । उपयामगृहीतोसि मर्काय त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम्। वेनः। चोदयत्। पृश्निगर्भा इति पृश्निऽगर्भाः। ज्योतिर्जरायुरिति ज्योतिःऽजरायुः। रजसः। विमान इति विऽमाने। इमम। अपाम्। सङ्गम इति सम्ऽगमे। सूर्य्यस्य। शिशुम्। न। विप्राः। मतिभिरिति मतिऽभिः। रिहन्ति। उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। मर्काय। त्वा॥१६॥
विषय - वेनो देवता । ( १ ) निदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः । ( २ ) गायत्री । षड्जः ॥
भावार्थ -
( अयं ) यह ( वेन: ) कान्तिमान् राजा एक उत्पन्न होने वाले बालक के समान है । ( रजय: विमाने ) गर्भस्थ जल के विशेष रूप से बने स्थान में स्वयं (ज्योतिर्जरायुः ) बच्चा जिस प्रकार जेर में लिपटा रहता है उसी प्रकार वह राजा भी ( रजसः विमाने ) समस्त लोकों के बने विशेष संगठन के भीतर ज्योतिः, प्रकाश, तेज रूप जेर से लिपटा रहता है । बच्चा जिस प्रकार ( पृश्र्निगर्भाः ) माता के पेट के जलों को प्रथम बाहर फेंकता है उसी प्रकार यह राजा भी ज्योति के धारण करने वाले सूर्य को अपने भीतर ग्रहण करने वाली प्रजानों को ( चोदयात् । प्रेरित करता है । (अपां संगमे ) जलों के एकत्र हो जाने पर जिस प्रकार बच्चे को अंगुलियों से बाहर कर लिया जाता है। इसी प्रकार ( विप्राः ) मेधावी विद्वान् पुरुष ( शिशुं न ) बालक के समान ही ( सूर्यस्य ) सूर्य के समान, प्रचण्ड ताप के कारण (शिशुं) प्रशंसनीय, या उसके समान दानशील राजा को ( अपां संगने) प्रजाओं के एकत्र होने के अवसर पर ( मतिभिः ) अपनी ज्ञानमय स्तुतियों से ( रिहन्ति ) अर्चना करते हैं । हे योग्य पुरुष ! (त्म्) तू ( उपयामगृहीतः असि ) राज्य के नाना अंगों, या राष्ट्र के समस्त भागों से स्वयं राजा रूप में स्वीकृत है । (त्वा) तुझको (मर्काय ) मर्क अर्थात् शरीर में जिस प्रकार समस्त अंगों में प्राण वायु चेष्टा करता है उसी प्रकार समस्त राष्ट्र में विशेष प्रेरणा देने वाले उत्तेजक पुरुष के पद पर नियुक्त करता हूं । शत० ४।२।१।८- ९० ॥
'मर्काय' मर्चतेः कन् ( उणा० ) मर्चति चेष्टते असौ इति मर्क: शरीर वायुर्वा ।
चन्द्रपक्ष में- यह ( वेनः ) कान्तिमान् चन्द्र ( रजसः विमाने ) जल के निर्माण अर्थात् वर्षाकाल में ( ज्योतिर्जरायुः ) दीप्ति में लिपट कर पृश्र्निगर्भा : ) अन्तरिक्ष या वातावरण में स्थित जलों को वर्षो रूप में प्रेरित करता है । और जलों के प्राप्त हो जाने पर विद्वान लोग सूर्य के पुत्र के समान इसकी स्तुति करते हैं ।
टिप्पणी -
१ अयं वेनश्र्वोदयत्पृश्रिगर्भा २ उपयामगृहीतोऽसि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
वेनो देवता । ( १ ) निदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः । ( २ ) गायत्री । षड्जः ॥
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